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________________ ६८ : पुत्रि ! इन पाँच अणुत्रतोंको तू धारण कर । व्रत तो और भी हैं, पर अभी तेरे लिए ये ही उपयुक्त हैं। इसके अतिरिक्त इतना और करना कि सुपात्रोंको सदा दान देना, रात्रिमें कभी भोजन न करना, कंदमूल और अचार न खाना, तथा ऐसी कोई वस्तु न खाना जिसका स्वाद बेस्वाद हो गया हो; और न कभी चमड़ेमें रखा हुआ घी, तेल, जल आदि खाना और पीना । ये सब बातें अहिंसाणुव्रत पालनेवाले के लिए बहुत आवश्यक हैं । इसलिए इनकी ओर सदा ध्यान रखना । भक्तामर कथा । रूपकुण्डला इस प्रकार गृहस्थधर्मका उपदेश सुन कर बहुत प्रसन्न हुई । इसके बाद उसने और उसकी सखियोंने श्रावकधर्म ग्रहण भी कर लिया । इसके सिवा मुनिराजने उसे भक्तामर स्तोत्रके ' उच्चैरशोक' इस श्लोक मंत्री आराधना करना बतला दिया | घर पर आते ही रूपकुण्डलाने और उसकी सखियोंने विधिके अनुसार मंत्र की आराधना करना शुरू करदी | कुछ दिनों बाद मंत्र के प्रभावसे उन सबका शरीर पहले से भी कहीं बढ़कर सुन्दर हो गया । यह देख वे बड़ी प्रसन्न हुई । सच है धर्म के प्रभावसे क्या नहीं होता ? रूपकुण्डलाका शरीर सुन्दर हो गया, और वह सुखसे रहने भी लगी; परन्तु उसके हृदयमें यह खटका सदा बना रहता था कि मैंने जो मुनिराज की निन्दा द्वारा अनन्त पाप उत्पन्न किया है, उसका अन्त कैसे होगा ? और यदि इस भव में वह नष्ट नहीं हुआ तो न जाने मुझे कुगतियोंमें कितना दुःख भोगना पड़ेगा ? इसलिए उचित तो यही है कि मैं इस क्षणिक संसारसे मोह छोड़ कर कल्याणका मार्ग ग्रहण करलूं | उससे मेरे आत्माका कल्याण होगा और मुनिनिन्दा पापका नाश होकर मुझे सुगतिकी प्राप्ति होगी ।
SR No.002454
Book TitleBhaktamar Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaylal Kasliwal
PublisherJain Sahitya Prasarak karyalay
Publication Year1930
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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