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________________ भक्तामर-कथा। - प्रभो! आपके अनन्तज्ञानादि स्वरूप आत्माका कभी नाश नहीं होता, इसलिए योगीजन आपको 'अव्यय' कहते हैं। आपका ज्ञान तीनों लोकोंमें व्याप्त है, इसलिए आपको 'विभु' व्यापक या समर्थ कहते हैं। आपके स्वरूपका कोई चिन्तवन नहीं कर पाता, इसलिए आपको 'अचिन्त्य' कहते हैं। आपके गुणोंकी संख्या नहीं, इसलिए आपको 'असंख्य' कहते हैं। आप कर्मोका नाश कर सिद्ध हुए हैं; किन्तु अनादि मुक्त नहीं हैं, इसलिए आपको 'आद्य' कहते हैं । अथवा युगकी आदिमें आपने कर्मभमिकी रचना की है या चौबीस तीर्थंकरोंमें आप आद्य तीर्थकर हैं, इसलिए भी आपको 'आद्य' कहते हैं। सब कोंसे आप रहित है अथवा अनन्त आनन्दमय हैं, इसलिए आपको 'ब्रह्मा' कहते हैं । आप कृतकृत्य हैं, इसलिए आपको 'ईश्वर' कहते हैं । अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शनादिसे आप युक्त हैं अथवा अविनश्वर हैं, इसलिए आपको 'अनन्त' कहते हैं । संसारके क्षयके कारण कामके आप नाश करनेवाले हैं, इसलिए आपको ‘अनंगकेतु' कहते हैं । योगी अर्थात् सामान्य-केवली या मन, वचन, कायके व्यापारको जीतनेवाले जो मुनिजन हैं उनके आप स्वामी हैं, इसलिए आपको ‘योगीश्वर' कहते हैं । ज्ञान-दर्शन-चारित्ररूप योगके जाननेवाले हैं या तपस्वी-जन आपके द्वारा यम आदिक आठ प्रकारका योग-ध्यानाग्नि जान पाते हैं अथवा आपने विशेष करके जीवके साथ सम्बन्ध करनेवाले कर्मोका नाश कर दिया है, इसलिए आपको 'विदितयोग' कहते हैं । आप पर्यायोंकी या अनन्त गुणोंकी अपेक्षासे अनेक हैं. इसलिए आपको. अनेक' कहते हैं। द्रव्यकी अपेक्षासे या अनन्तज्ञानादि स्वरूपसे अथवा संसारमें आप अद्वितीय है-आपसे बढ़कर कोई नहीं हैं, इसलिए आपको 'एक' कहते हैं। आप केवलज्ञान-स्वरूप हैं अर्थात् सब कर्मोंका क्षय करके चित्स्वरूप हुए है, इसलिए आपको 'ज्ञानस्वरूप ' कहते हैं। और सर्व कर्म-मल-रहित हैं, इसलिए आपको 'अमल' कहते हैं। प्रभो ! आपके केवलज्ञानकी गणधरोंने या स्वर्गके देवोंने पूजा की है, इसलिए आप ही सच्चे 'बुद्ध' हैं। किन्तु जो क्षणिकवादी हैं-संसारके सब पदार्थोको जो क्षणिक बतलाता है अथवा जिसमें केवलज्ञान न होनेसे जो वस्तके स्वरूपको ठीक ठीक नहीं जानता, वह कभी बुद्ध नहीं हो सकता । आप तीनों लोकोंको सुखके देनेवाले हैं, इसलिए आप ही सच्चे 'शंकर' हैं । जो कपाल हापमें लिये मशानमें नाचता है, संसारका संहारक है और मोहका
SR No.002454
Book TitleBhaktamar Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaylal Kasliwal
PublisherJain Sahitya Prasarak karyalay
Publication Year1930
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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