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________________ भक्तामर-कथा। करना शुरू किया । जिधर देखो उधर ही कोई दाहज्वरके मारे चिल्ला रहा है, कोई शूल रोगसे त्राहि त्राहि कर रहा है, कहीं हैजा है, कहीं विचिका है, और कहीं चेचकका भयंकर रोग है । सब श्रावक-गण विपत्तिमें पड़ गये । उससे मुक्त होनेका वे कोई उपाय नहीं कर सके। ___ यह देख वे मुनि यक्ष-मन्दिरमें गए और अपने कमण्डलुको यक्षके कानमें लटका कर उसके सामने पाँव फैला करके सो रहे । यक्षने अपने अविनय करनेवाले मुनिको बहुत डराया, धमकियाँ दी; पर वे उसकी कुछ परवा न कर सोते ही रहे । सियालसे हाथी नहीं डरा करते हैं। यह देख यक्षने ये सब बातें राजाको सूचित की। राजाने मुनि पर गुस्सा होकर कहा कि-जिस देवकी मैं पूजा-भक्ति करता है, उसे अपमानित करनेकी किसमें हिम्मत है ? इसके बाद उसने अपने नौकरोंको आज्ञा की कि जाओ, उस अविनयी पापी मुनिको अभी मार डालो । राजाकी आज्ञा पाकर हजारों नौकर हाथोंमें बड़ी बड़ी लाठियाँ लिए यक्षमन्दिर पहुँचे और निर्दयतासे मुनिको मारने पीटने लगे । पर आश्चर्य है कि वह मार मुनि पर न पड़ कर राजाकी रानी पर पड़ी। इस घटनासे राजा बडा चकित हुआ । वह फिर अपने परिवारके साथ यक्ष-मन्दिर आया और मुनिके पावोंमें पड़ कर उनसे उसने क्षमा कर देनेके लिए प्रार्थना की । इतनेमें यक्षने भी प्रगट होकर मुनिराजको नमस्कार कर क्षमा माँगी। जिनकी जिनधर्म पर श्रद्धा है उनके पावोंमें देवता लोग अपना सिर झुकाया ही करते हैं । धर्मका इस प्रकार आचिन्त्य माहात्म्य देखकर राजा तथा और भी बहुतसे लोगोंने बुद्ध मतको छोड़ कर जिनधर्म ग्रहण किया। जैनधर्मकी खूब प्रभावना हुई। एकका आविर्भाव अर्थात् उत्पन्न होना और एकका तिरोभाव अर्थात् नष्ट होना वस्तुके ये निरंकुश दो धर्म ही हैं।
SR No.002454
Book TitleBhaktamar Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaylal Kasliwal
PublisherJain Sahitya Prasarak karyalay
Publication Year1930
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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