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________________ महीपालकी कथा । कह सुनाया । भगवद्भक्तिका ऐसा प्रभाव सुन कर बहुतोंने जैनधर्म ग्रहण किया । चित्रं किमत्र यदि ते त्रिदशाङ्गनाभिनतं मनागपि मनो न विकारमार्गम् । २७ कल्पान्तकालमरुता चलिताचलेन किं मन्दराद्रिशिखरं चलितं कदाचित् ॥ १५ ॥ हिन्दी - पद्यानुवाद | देवाङ्गना हर सकीं मनको न तेरे, आश्चर्य नाथ, इसमें कुछ भी नहीं है । कल्पान्तके पवन से उड़ते पहाड़, पै मन्दराद्रि हिलता तक है कभी क्या ? नाथ ! इसमें कोई आश्चर्य नहीं जो देवांगनाएँ आपके मनमें रंचमात्र भी विकार: पैदा नहीं कर सकीं; क्योंकि प्रलयकालके वायु द्वारा बड़े बड़े पर्वत चल सकते हैं, पर सुमेरुको वह कभी चलायमान नहीं कर सकता । महीपालकी कथा । इस श्लोक मंत्री आराधनासे अयोध्या के राजा महीपालको लाभ हुआ था । उनकी कथा इस प्रकार है भारतवर्षमें कोशल एक प्रसिद्ध देश है। वह वन, सरोवर, नदी, आदिसे युक्त है । उसमें अनाथोंके लिए अन्नक्षेत्र, प्यासा के लिए पौ आदिका प्रत्येक शहरमें अच्छा प्रबंध है । उसकी प्रधान राजधानी अयोध्या है । वह बहुत प्रसिद्ध और सुन्दर पुरी है । उसमें अच्छे अच्छे विद्वान् और शूरवीरोंका निवास है । वह उन विशाल महलोंसे, जो ध्वजाएँ और तोरणोंसे बहुत सुन्दरता धारण किए हुए हैं, शोभित है ।
SR No.002454
Book TitleBhaktamar Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaylal Kasliwal
PublisherJain Sahitya Prasarak karyalay
Publication Year1930
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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