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________________ तित्थोगाली पइन्नय ] [ ५१ उन कदलिगृहों के नितान्त मध्य भाग में वे अपनी वैक्रिय शक्ति द्वारा चतुःशालाएं और तीनों चतुःशालाओं के मध्य तीन श्रेष्ठ सिंहासनों की रचना करती हैं ।१६६। ताहे जिणजणणीओ, जेण महिया दाहिणोव चउसाले । सिंहासणे ठवित्ता, सयपाग सहस्स पागेहिं १६७। (ततः जिनजननीन् . येन महीयसी दक्षिणोपचतुःशाला । सिंहासने स्थापयित्वा. शतपाकसहस्रपाकेभ्यः ।) तत्पश्चात् वे तीर्थङ्करों की माताओं को दक्षिण दिशा में स्थित चतुःशाला में ले जा कर सिंहासन पर बैठाती हैं और शतपाक, सहस्रपाक सैलों से ।१६७। अब्भंगेऊण तउ सणियं, गंधोदएण सुरभीणं । उव्वट्ठऊण तओ पुरछिमं नेति चउसालं ।१६८। (अब्भ्यंगयित्वा ततःशनैः, गंधोदकेन सुरभिणा । उद्वर्तयित्वा ततः पुरश्चिमं नयन्ति चतुःशालाम् ।) धीरे धीरे उनके शरीर का अभ्यंगन-मर्दन करती हैं। अभ्यंगन के अनन्तर शतपाकादि तैलों की चिकनाहट को उनके शरीर से दूर करने हेतु सुरभिपूर्ण गन्धोदक से जिन-जननियों के शरीर का उद्वर्तन कर उन्हें पूर्व दिशा की चतुःशालाओं में ले जाती हैं ।१६८। तत्थ ठवेडं सीहासणे सुमणि कणगरयणकलसेहि । पउमुप्पल पिहाणेहिं, सुरसि (भि) खीरोय भरिएहिं ।१६९। (तत्र स्थापयित्वा सिंहासनेषु, सुमणिकनकरत्नकलशैः । पद्मोत्पलपिधान, सुरभि क्षीरोदकभरितः ।) वहां चतुःशाला के बीच में रखे सिंहासनों पर सुखासीन कर अमूल्य मणियों, स्वर्ण और रत्नों से निर्मित पद्म एवं नीलोत्पल के ढक्कनों से ढके तथा सुगन्धित क्षीरोदक से भरे कलशों से ।१६६। न्हावेऊणं विहिणा, जणणीओ दसवि मंडिया विहिणा । लहुएहिं जिणवरिंदे, दिव्वाभरणेहिं मनंति ।१७०।
SR No.002452
Book TitleTitthogali Painnaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay
PublisherShwetambar Jain Sangh
Publication Year
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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