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________________ ३६४ ] [तित्थोगाली पइन्नय (सम्यग्दर्शन मूलं, द्विविधं धर्म समासत उक्तम् । ज्येष्ठं च श्रमण धर्म , श्रावक धर्म च अनुज्येष्ठम् ।) ___सम्यक् दर्शन का मूल संक्षेपत; दो प्रकार का धर्म बताया गया है उन दो प्रकार के धर्मों में से ज्येष्ठ धर्म है श्रमण धर्म और उस ज्येष्ठ धर्म के पश्चात् दूसरा धर्म है श्रावक धर्म ।१२११। जा जिणवरदिट्ठाणं, भावाणं सदहणया सम्म । अत्तणओ बुद्धीयया, सोऊण व बुद्धि मंताणं ।१२१२। (या जिनवर दृष्टानां, भावानां श्रधनया सम्यक्त्वम् । आत्मनः बुद्ध या, श्रु त्वा वा बुद्धिमन्तेभ्यः ।) ____या तो त्रिकालदर्शी जिनेश्वरों द्वारा देखे-जाने एवं प्ररूपित भावों पर श्रद्धा करने से सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है या तत्त्वदर्शी ज्ञान स्थावरों से सुनकर अथवा स्वयं की बुद्धि से तत्त्व चिन्तन द्वारा सम्यक्त्व प्राप्त किया जा सकता है ।१२१२। मिच्छाविगप्पिएसु य, अस्थिकुसासणोवदिट्ठसु । एतं मेव मितिरुई, सुद्ध त होइ संमत्तं ।१२१३। . (मिथ्या विकल्पितेषु च, अस्ति कुशासनोपदिष्टेषु । एतन्मैवमिति रुचिः, शुद्धं तद् भवति सम्यक्त्वम् ।) मिथ्या विकल्पित कुशासनों द्वारा उपदिष्ट सिद्धान्तों में जो कुछ है, वस्तुतः वह वैसा नहीं है, इस प्रकार की रुचि होने पर शुद्ध सम्यक्त्व होता है । १२१३। एगते मिच्छत्त, जिणाण आणा य होइ णेगंतो । एगं पि असहिओ, मिच्छादिट्ठी जमालिव्व ।१२१४ (एकान्ते मिथ्यात्वं, जिनानामाज्ञा च भवति नैकान्तः । एकमपि अश्रद्दधतः, मिथ्याहष्टिः जमालीव ।) वस्तुतः एकान्त में मिथ्यात्व है, जिनेश्वरों की आज्ञा अनेकान्त को स्वीकार करने की है। जिनेश्वर द्वारा प्ररूपित सिद्धान्तों में से
SR No.002452
Book TitleTitthogali Painnaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay
PublisherShwetambar Jain Sangh
Publication Year
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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