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________________ तित्योगालो पइन्नय ] [ २६७ स्पतयः । उत्सपिरणो काल के दुष्षम दुष्षमा नामक प्रथम प्रारक की अन्तिम रात्रि के पाते ही रात भर निरन्तर अति घोर वृष्टि होगी ।९८५। तेण हरिया य रुक्खा, तणगुम्मलश वणप्फतीउ । अभियस्स किरणजोणी, पंचतीसं अहोरत्ता ।९८६। (तेन हरिताश्च वृक्षाः, तृण गुल्मलतावनस्पतयः । अमृतस्य किरणयोनि [?], पंचत्रिशत् अहो रात्रा ।) उस वर्षा के फलस्वरूप अमृतरस के उद्गम स्रोत हरे भरे वक्ष, तृण, गुल्म, लता आदि वनस्पति वर्ग उत्पन्न हुए। पैंतीस अहो. रात्र पर्यन्त-३५६ः धारावलि धवलाहि य, अहते धाराइ आहया संता । आसत्था मणुयगणा, चिंते अह पवत्ता ।९८७। (धारावलि धवलाहि च, अथ ते धारया आहता सन्तः । आश्वस्ताः मनुजगणाः, चिन्तयितु ते अथ प्रवृत्ताः ।) मेघों से जल की धवल धारावली निरन्तर बरसती रही। तदनन्तर जलधाराओं से आहत एवं आश्वस्त हुए वे बिलवासी लोग चिन्तन करने लगे--1६८७। अच्छेरयं महन्लं, अज्झतो पडइ सीयलं उदयं । किं दाई इण्हि काही ? अण्णं एचो य परमतरं ।९८८।। (आश्चयं महत् अद्यतः पतति शीतलं उदकम् । किमिदानी ऐभिः करिष्ये, अन्यं एतेभ्यश्च परमतरम् ।) ___ अहो ! महान् आश्चर्य ! आज तो शीतल जल बरस रहा है। अब इन मत्स्यादि के मांस से क्या प्रयोजन, जब कि इससे परम श्रेष्ठ और स्वादिष्ट कन्द, मूल, पुष्प, फल, धान्यादि अन्य बहुत सी खाद्य वस्तुएं हमें उपलब्ध हैं ।६८८।। तो ते बिलवासि नरा, पासिचान्न महंत सामिद्धि । काहिंति इमं सव्वं, सव्वे वि समागता संता ।९८९। '
SR No.002452
Book TitleTitthogali Painnaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay
PublisherShwetambar Jain Sangh
Publication Year
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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