SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 149
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२२ ] [ तित्थोगाली पइन्नय चंदाणणे मरुदेवे य, अग्गिदत्त य जुतिसेणजिणे । सेजसे पुव्वण्हे, सेसाणं पच्छिमण्हम्मि ।४०३।१ (चन्द्राननमरुदेवौ च अग्निदत्तश्च द्यु चिसेन जिनस्य । श्रेयांसस्य पूर्वान्हे, शेषानां पश्चिमाह्नि ।) चन्द्रानन, मरुदेव, अग्निदत्त, युक्तिसेन और श्रेयांस (नामक पांचों ऐरवत क्षेत्रों के तोर्थ करों) को पूर्वाह्न में और ऐरवत क्षेत्रों के शेष (६५) तीर्थकरों को पश्चिमाह्न (अपराल) में केवलज्ञान की उपलब्धि हुई।४०३। _स्पष्टीकरण-तित्थोगाळो पइन्नयकार ने कहीं स्पष्ट शब्दों में धातकी खण्ड एवं पुष्कराद्धद्वीप के भरत और ऐरवत क्षेत्रों की चौबीसियों के तीर्थ करों के नामों का उल्लेख नहीं किया है, किन्तु इस गाथा में पांचों तीर्थकरों के नामों में प्रयुक्त बहवचन को देखकर अनुमान किया जाता है कि यदि इसमें लिपिकारों की ओर से कहीं त्रुटि नहीं की गई है तो तित्थोगाळी पइन्नयकार को मान्यतानुसार जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र को चौवीसी के तीथंकरों के समान शेष चार भरतक्षेत्रों की चार चौवीसियों के तीर्थङ्करों के नाम भी ऋषभ आदि तथा ऐरवत क्षेत्रों को पांचों चौवोसियों के तीर्थंकरों के नाम भी समान रूप से चन्द्रानन आदि थे।] दससुवि वासेसेवं, दस समेगर त केवली होति । दस चेव धम्म तित्था, निदिट्ठा वीयरागेहिं ।४०४। (दशष्वपि वर्षेष्वेवं, दश समेकं तु केवलिनः भवन्ति । दश चैव धर्मतीर्थाः, निर्दिष्टाः वीतरागैः ।) दशों क्षेत्रों में इस प्रकार के एक साथ एक समय में दश तीर्थकर और दश ही धर्मतीर्थ होते हैं. यह वीतरागों ने बताया है । ४०४। १ ऐरवत क्षेत्रेषत्पन्नान जिनानु द्दिश्यैषा गाया प्रोक्ता। २ समेगं-समेकं, सार्द्धम् वा एकसमये-इत्यर्थः ।
SR No.002452
Book TitleTitthogali Painnaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay
PublisherShwetambar Jain Sangh
Publication Year
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy