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________________ जम्बुप्रभवका संवाद, ( ११३ ) चोरों के हौश खता हो गये। वे प्रथम तो खूब डरे पर अन्त में और कोई उपाय न देख कर गिड़गिड़ाय कर कातर स्वर से कुंवर को सम्बोधन कर बोले कि आप को धन्य है । कहाँ तो हम अधम कि धन को ही जीवन का ध्येय समझ कर रात दिन इस की ही प्राप्ति के लोभ में अपनी जिन्दगी को पशुओं से भी बदतर बिताते हुए मारे मारे फिरते हैं; जिस के कारण कि हम फटकारे जाते हैं और कहाँ आप से भाग्यशाली नर कि इस ऋद्धि को तृण समान तथा इन रूपवती स्त्रियों को नर्क प्रद समझ कर छोड़ने का साहस कर रहे हो । वास्तव में हम अति पामर हैं | हम अंधेरे कुए में हैं । हम अपने लिये अपने हाथ से खड्डा खोद रहे हैं | आप अहोभागी हैं। सब कुछ करने में आप पूरे समर्थ हैं, मैं आज आप से एक बात की याचना करता हूँ | आप हम पर अनुग्रह कर वह शीघ्र दीजिएगा । मैं आप को उसके बदले दो चीजें दूँगा | चोरने कहा 1 अवसर्पिणी निद्रा और ताला तोड़ने की विद्या तो आप लीजिये और मुझे स्तम्भन विद्या दीजिये । जम्बुकुंवरने समझाया कि जिस चीज़ को तुम प्राप्त करने की इच्छा करते हो वास्तव में वह निःसार है । तुम्हारा भगीरथ प्रयत्न का फल कुछ भी नहीं होगा । यदि सचमुच तुम्हारी इच्छा हो कि हम ऐसी विद्या सीखें कि जिस से सदा सर्वदा सुख हो तो चलो सौधर्माचार्य के पास और दीक्षा लेकर अपने जीवन का कल्याण करो | इस प्रकार से ८
SR No.002448
Book TitleJain Jati mahoday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherChandraprabh Jain Shwetambar Mandir
Publication Year1995
Total Pages1026
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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