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________________ ( १० ) जैन जाति महोदय. में वर्ण व्यवस्था की भी आवश्यक्ता प्रतीत हुई और क्रमसे चार वर्ण स्थापित हुए-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र । किन्तु समयान्तर में इन की व्यवस्था में जमीन आसमान का फरक पड़ गया। एक वर्ण अधिकारी तो दूसरा सेवक समझा जाने लगा। जिस समता के उद्देश से सामाजिक कार्य को सहयोग द्वारा सम्यक् रीति से चलाने के लिये वर्ण व्यवस्था की गई थी वह विषमता के कारण सामाजिक दशा को शिथिल कर उस के हेतु घुनरूप हो गई। अतएव एक समय एक ऐसे वीर पुरुष के अवतरित होने की आवश्यक्ता उप्तन्न हुई जो जाति पांति के भेद भाव को मिटा कर समाज को पुनः माम्यता का स्वाद चखादे । तदनुकूल भगवान महावीरस्वामी का जन्म हुआ और उन्हों ने धर्माधिकार के लिये ऊँच नीच के भेद. भाव को मिटाकर एक वार फिर से साम्यता द्वारा सुख और शान्ति प्रचार करने का प्रयत्न किया । उन्हों ने अपने देशनामृत का पान करा कर सहज ही में सब को अपनी ओर आकर्षित कर लिया। जातियों की जंजीरों से जकड़ी हुई समाज पारस्परिक भेद भाव को भूल गई फिर तो इस प्रकार से एक्यता के सूत्र में सम्मिलित होने के लिये केवल साधारण जनता ही नहीं किन्तु कई राजा महाराजा भी प्रवृत्त हुए । अंग, बंग, कोशल, कुनाल और कलिङ्ग प्रान्त में मापका संदेश बात ही बात में सर्वत्र फैल गया और जनता जैन धर्म के झंडे के नीचे विपुल संख्या में एकत्रित होने लगी। 'अहिंसा परमो धर्म' की ध्वनि चहुँ ओर सुनाई देने लगी। ततंत्री पर इसी का नाद होने लगा।
SR No.002448
Book TitleJain Jati mahoday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherChandraprabh Jain Shwetambar Mandir
Publication Year1995
Total Pages1026
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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