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________________ आदर्श - ज्ञान - द्वितीय खण्ड बतला भोगे तो मैं स्वीकार करने का प्रस्तुत हूँ । मुनि० - लाओ पन्नवरणा सूत्र | सागरजी - पेटी खोल कर पन्नवरणा सूत्र लाकर मुनिजी को - ५८० दिया । लो बतलाओ इसमें अशुद्धियें ? 1 योगी – लो अभी तो प्रतिलेखन का समय हो गया है, फिर देखना | योगीराज ने सोचा कि सुरत में चतुर्मास कर मुनिजी ने बहुत अच्छा यश एवं नाम प्राप्त किया है, पर यह सागर - विवाद सब पर पानी फेर देवेगा, अतः यहाँ रहना ठीक नहीं "संकले सं जहा ठाणं दूरे श्रो पड़िवज्जए" इस शास्त्राज्ञा को शिरोधार्य कर यहाँ से विहार कर जाना ही अच्छा है । एक दो श्रावकों को सूचित कर दिया कि कल हमको विहार करना है । इधर गोपीपुरा वगैरह में खबर हुई कि आज सागरजी के और मुनिश्री के आपस में प्रश्नोत्तर के लिए खूब तकरार और गरमा गरम चर्चा हुई थी, न जाने भविष्य में इसका क्या नतिजा निकलेगा । सुरत में कई लोग सागरजी के भक्त एवं पक्षकार थे, किन्तु कई लोग उनके प्रतिकूल भी थे। जो लोग सागरजी के प्रतिकूल थे वे मुनिश्री के पास आकर कहने गले कि, साहेब आप घबराशो नहीं, अगर सागरजी ने साथ आपनो शास्त्रार्थ थाय तो श्रमे जो जोइये ते सहायता करवाने तैयार छिए, श्र सागर हमणो मिध्या भिमान करी कोई ने विद्वान मानतोज नथी, पण तमे ठीक मल्या, सागर ना दांत तो तमेज खाटा करवाना हो विराजो अहीं अने करो शास्त्रार्थं । योगीराज ने मुनिश्री को कह दिया कि, विहारनी तैयारी करो,
SR No.002447
Book TitleAadarsh Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnaprabhakar Gyan Pushpmala
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpmala
Publication Year1940
Total Pages734
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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