SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 447
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भादर्श - ज्ञान द्वितीय खण्ड ३६४ उस साध्वी जी को देखते थे तब चौथा श्रारा ही आप को याद श्राता था, तथा उन साध्वीनी को अपनी माता से भी अधिक समझते थे सत्य है पूर्व जन्म के संस्कार अवश्य प्रेरणा करता है । बड़ी धर्मशाला ( जहां मुनिश्री ठहरे थे ) के पास ही खरतर गच्छ की साध्वियों की धर्मशाला थी, साध्वियां अपना आचार व्यवहार से सुशील और मर्यादा वाली थी तद्यपि आप के शुरु से ही ऐसा संस्कार पड़ गया था कि विना व्याख्यान के साध्वियों या बाइयों का श्राना श्राप को रुचिकर प्रतीत होता था । जब खरतरगच्छ की साध्वियां उनके साधुओं की सेवा करने में दिन का अधिक भाग वहां ही ठहरने में व्यतीत करती थीं और यहि व्यवहार मुनिश्रा के साथ रखना चाहती थीं अतः मुनिश्री कभी कभी व्याख्यान में फटकार लगा ही देते थे कि बिना व्याख्यान के न तो साध्वियों को साधु के उपासरे आना कल्पता है और न बिना कारण साधुओं को साध्वियां के मकान पर जाना ही कल्पता है । जिस से कि शंका अवश्य रहती थी । और सिवाय व्याख्यान वाचना के उनका आना जाना बन्द ही रहता था । खरतरगच्छ की साध्वियों और श्रावकों को इतनी भक्ति क्यों थी ? इसका खास कारण यह था कि प्रथम तो मुनिश्री से ज्ञान प्राप्त करना था, द्वितीय मुनिश्री को अपनी ओर आकर्षित कर अपने गच्छ में मिलाना था । एक दिन ज्ञानश्री वल्लभ श्रीने यों ही बात निकाली कि आप इतने विद्वान हैं पर इस से हम लोगों को क्या लाभ ? यदि आप हमारे गुरु बन जावें तो हम सब प्रकार से आप की सेवा भक्ति कर विशेष ज्ञान प्राप्त कर सकें। महाराज साहब हमारे सिंघा में २०० साध्वियां होने पर भी कोई सुयोग्य साधु नहीं है । ज्ञान
SR No.002447
Book TitleAadarsh Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnaprabhakar Gyan Pushpmala
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpmala
Publication Year1940
Total Pages734
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy