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________________ आदर्श - ज्ञान द्वितीय खण्ड २८२ मुनि - " श्रवकजी ! मूर्ति के न मानने से केवल इतना हो नुक्सान नहीं हुआ है, बल्कि और भी काफी नुक्सान हुआ है।" श्रावक - " और क्या नुक्सान हुआ है महाराज ? 1 मुनि - जैन साहित्य जो समुद्र के सदृश विशाल है, उ में से केवल ३२ सूत्र, वे भी मूल पाठ और उसका टब्बा मानना, उसमें से भी मूर्ति पूजा विषयक पाठों का अर्थ बदल देना क्या यह क्रम नुक़सान है ? उस पर भी तारीफ़ यह है कि जब ३.२ सूत्रों से काम नहीं चलता है, तब उनके अतिरिक्त सूत्र, अँथ, टीका निर्युक्त इत्यादि की शरण लेनी पड़ती है । दूसरा एक मूर्ति नहीं मानने के कारण आज अनेक देव-देवियों को जैनों के घरों में एवं हृदय में स्थान मिल गया है और आचार विचार को इतना भद्दा बन गया है कि जिसको कहने की आवश्यकता नहीं आप स्वयं जानते हो । V श्रावक - महाराज ! यों हो बहुत चर्चा है, जिसका अन्त आ ही नहीं सकता। उस पर भी आप ठहरे विद्वान् और हम रहे अनजान | इसलिए इसको तो आप अभी यहीं रहने दीजिए और हम जिस काम के लिए आये हैं, वह सुन कर आप हमारी प्रार्थना स्वीकार करें और हमें अपना कृतज्ञ बनावें ।" मुनि - "कहिये आप किस काम के लिए आये हैं ? " श्रावक - " हम लोगों की यह सानुरोध प्रार्थना है कि आप पूज्यजी महाराज के पास पधारें। वहाँ हम सब मिल कर आपको 'युवराज' की पदवी देंगे जिसको आप उदारता पूर्वक स्वीकार करें ।” मुनि - आप जानते हैं कि मेरी श्रद्धा मूर्ति की उपासना करने
SR No.002447
Book TitleAadarsh Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnaprabhakar Gyan Pushpmala
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpmala
Publication Year1940
Total Pages734
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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