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________________ आदर्श - ज्ञान २५६ हस्ताक्षर कर भी दिये और बाद में वह इन बातों को न भी पाले, तो क्या उस पर दावा किया जायगा ? जैसे आप स्वयं भी लिखत पर हस्ताक्षर कर उन सब कलमों का पालन नहीं करते हो ! इतना हो क्यों पर बड़े पूज्यजी की बनाई हुई कलमों का लम्बा चौड़ा लिखत किया हुआ पड़ा है, उसको कोई दूसरा तो क्या, पर खुद पूज्यजी महाराज भी नहीं पालते हैं। क्या पूज्यजी पर भी दावा होगा ? फिर इस प्रकार एक योग्य साधू का अपमान करने में मैं तो लाभ के बजाय हानि ही देखता हूँ। खैर, गयवरचन्दजी कोई ऐसा बच्चा तो नहीं हैं, यदि पण्यजीमहाराज की ऐसी ही आज्ञा है, तो इनको यहाँ ही रहने दो, और आप अपने विहार करो । शोभाः - महाराज, मेरा दिल तो नहीं चाहता है कि मेरे ही आने से गयवरचन्दजी अलग हो जाँय, पर क्या करूँ, मैं लाचार हूँ जो पूज्यजी के कहने से ऐसा लिखित लेकर मैं श्राया । -- * मोड़ी: - खेर, अपने तो कल विहार करना है । क्यों गयवरचन्दजी, तुम्हारी क्या मरजी है, क्या तुम यहाँ ही ठहरोगे ? गयवर — गुरु महाराज, जैसी आपकी आज्ञा । मैं अकेला रहने में घबराता तो नहीं हूँ, पर पूज्यजी महाराज इस प्रकार दावपेच से मुझे अकेला रखना चाहते हैं, इस बात का रंज अवश्य है । हां, एक बार पूज्यजी के पास जाकर जवाब सवाल कर लेता तो अच्छा था । मोड़ी:—क्या जवाब- सवाल करना है। पूज्यजी का कहना है कि तुम मूर्ति की प्ररूपना मत करो और तुम कहते हो कि मैं सत्य बात निःशंक होकर कहूँगा । बस, बात तो इतनी ही है न ?
SR No.002447
Book TitleAadarsh Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnaprabhakar Gyan Pushpmala
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpmala
Publication Year1940
Total Pages734
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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