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________________ फिर ही मैं यह निवाला खा सकूँगा।” सचमुच सातों व्यसन का जिंदगीभर तक त्याग करने के बाद ही उस युवक ने भोजन किया। कल्पना कीजिए कि यदि उस श्रावक ने उस युवक के पापों को धिक्कारा होता तो क्या यह हृदय परिवर्तन संभव था? साधर्मिक भक्ति ने एक महादुराचारी जीव को भी सच्चे मार्ग पर चढ़ा दिया, मात्र उसका ही नहीं परंतु पूरे कुटुंब का कल्याण कर दिया। इस प्रसंग से आप समझ गए होंगे कि मात्र जन्म से ही जैन ऐसे व्यक्ति की भी की गई साधर्मिक-भक्ति कितनी लाभप्रद बनती है। अर्थात् समझने की बात तो यह है कि साधर्मिक भक्ति यानि मात्र तिलक करना या पैसे देना, इतना ही नहीं है बल्कि अपने वात्सल्य एवं प्रेमपूर्ण व्यवहार से साधर्मिक को धर्म में जोड़ना या उससे पाप छुड़वाना यह भी एक विशिष्ट प्रकार की साधर्मिक भक्ति है। क्योंकि यह जिनशासन साधर्मिकों से ही चल रहा है तथा चलेगा। फिर चाहे साधर्मिक जैसा भी हो अमीर हो या गरीब, धर्मी हो या अधर्मी, व्रतधारी हो या सातों व्यसन से चकचूर, हमें उनकी उपेक्षा नहीं करके बहुमान भाव से उनकी भक्ति करनी चाहिए। ____ यदि हम किसी भी साधर्मिक के दोषों एवं कुकर्मों को देखकर उसके प्रति तिरस्कार भाव पैदा करे तो उनकी आशातना करने से निम्न दोषों की संभावना होती है - 1. यदि हम अधिक धर्म करते हैं और सामनेवाला व्यक्ति धर्मी नहीं है। तथा हम उसे तिरस्कार भाव से देखे तो इससे यह साफ जाहिर हो जाता है कि हमें धर्म करने का अहंकार है अभिमान है। 2. इससे प्रभु के शासन का गूढ मर्म हाथ से चला जाएँगा। 3. अहंकार के कारण, धर्म क्रिया में दिखावा बढ़ेगा। 4. भारी पाप कर्म का बंध होगा। 5. साधर्मिक की अवहेलना करने से उनके धर्म विरोधी बनने का पाप हमारे सिर चढ़ेगा। इन दोषों को टालने के लिए हृदय को विशाल बनाकर साधर्मिकों को भी यदि हम प्रेम पूर्वक हृदय में स्थान देंगे, तो उनमें भी शासन के प्रति अहोभाव जगेगा एवं आप और वे दोनों सुलभ बोधि बनेंगे। अन्यथा भवांतर में दोनों को जैन धर्म मिलने की संभावना नहीं रहेगी। अतः साधर्मिक के गुणों तथा अवगुणों को अनदेखा कर मात्र उनके जैन होने की बात को गाँठ बाँधकर उनकी भक्ति करनी चाहिए। साधर्मिक भक्ति कैसे करें? * प्रत्येक साधर्मिक व्यक्ति की दिल से अनुमोदना करें। उनका उत्साह बढाएँ। * जिन साधर्मिकों को धर्म करने की अनुकूलता न हो उन्हें अनुकूलता करके दें।
SR No.002439
Book TitleJainism Course Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManiprabhashreeji
PublisherAdinath Rajendra Jain Shwetambara Pedhi
Publication Year2012
Total Pages230
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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