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________________ महाराज वासुदेव के बड़े पुत्र की मृत्यु हुई तो वे पुत्रशोक में उन्माद को प्राप्त होकर रात-दिन उसके पलंग का पाया पकड़कर बैठे रहने लगे। उन्हे स्वस्थ चित्त बनाने के सारे प्रयत्न विफल हो गए तब धृत पंडित ने भाई का शोक दूर करने के लिए एक युक्ति सोची । वह स्वयं पागल बन बेठा और चन्द्रमा के खरगोश की तरह रट लगाने लगा । वासुदेव बाहर निकले और भाई से बोले-अप्राप्य की आशा क्यों करते हो ? धृत पंडित ने कहा- मैं तो उस वस्तु को माँग रहा हूँ, जो दृष्टि से दिखाई पड़ रही है । तुम तो उस वस्तु के लिए शोक-मग्न हो जिसका नाम-निशान भी नहीं रह गया है । भाई की उक्ति सुनते ही वासुदेव का शोक दूर हो गया । । एक बार पुत्र प्राप्ति के विचार से वासुदेव आदि दसों भाई कृष्ण द्वैपायन मुनि की दिव्यदष्टि की परीक्षा के लिए गए। वे साथ में एक छोटे लडके को, उसका गर्भवती स्त्री का सा पेट बनाकर, ले गए और मुनि से बोले - इसे पुत्र होगा या पुत्री ? राज-पुरुषों की दुष्टता से कुपित होकर मुनि ने कहा - इस व्यक्ति को आज से सातवें दिन लकडी की एक गाँठ पैदा होगी और उससे समस्त वासुदेव-वंश का नाश हो जाएगा । मुनि की वाणी से कृद्ध होकर कुमारों ने उसके गले में रस्सी का फंदा डालकर उसे मार डाला। सगर्भ लड़के की देखरेख की जाने लगी सातवें दिन उसके पेट से एक गाँठ निकली तो उसे तुरन्त जला दिया गया और राख को नदी में बहा दिया गया । प्रवाहित होती हुई राख नदी के मुहाने पर फैल गई। थोड़े दिनों में वहाँ कुछ झाड़ियाँ उग आईं एक दिन सब भाई अन्य यदुवंशियों के साथ जलक्रीडा के लिए नदी के मुख के पास गए । खान-पान की व्यवस्था हुई । फिर नशे में चूर होकर वे एक दूसरे से कलह पर उतर आए । आस-पास की झाडियों से लकड़ियाँ तोड़कर एक दूसरे पर प्रहार करने लगे । एक ने राख से उत्पन्न हुई झाड़ी में हाथ लगाया तो उसके हाथ में एक पान आया जो देखते-देखते एक मुंगरी बन गया । यह देखकर सबने यही किया और हर एक के हाथ में एक मुंगरी हो गई । फिर आमने-सामने मुंगरियाँ चलने लगी और एक-एक करके सब धराशायी हो गए । केवल, वासुदेव, अंजना और राजपुरोहित बच गए । वे रथ में बैठकर भाग निकले। , कालमृतिका अटवीं में पहोंचने पर उनका सामना एक गंधर्व से हुआ । जो पूर्व-जन्म में मुष्टिक मल्ल था और बलदेव से अपने वैर का बदला लेने के लिए गन्धर्व बनकर यहाँ उपस्थित था। उसके युद्ध का आह्वान सुन ज्यों ही बलदेव उसकी ओर बढ़े उसने उन्हें कन्द-मूल की तरह खा डाला । हिन्दी जैन साहित्य में कृष्ण का स्वरूप-विकास • 20
SR No.002435
Book TitleHindi Jain Sahitya Me Krishna Ka Swarup Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherParshva Prakashan
Publication Year1992
Total Pages190
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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