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________________ स्वरूप के रूपान्तर होने की पूर्ण सम्भावना है । किन्तु इतना ध्यान में रहे कि ईसा की पांचवीं शताब्दी के बाद कोई भी जातक कथा नहीं लिखी गई है। घट जातक के अनुसार बौद्ध-कृष्ण-कथा रूप इस प्रकार है-उत्तरापथ के कंस प्रदेश के असितांजन नगर के राजा महाकंस की तीन संतानों में कंस और उपकंस दो पुत्र थे और देवगर्भा एक पुत्री थी । देवगर्भा के जन्म पर भविष्यवेत्ता ब्राह्मणों ने कहा था कि उसके गर्भ से जो पुत्र होगा वह कंस प्रदेश और कंस-वंश का नाश करेगा । महाकंस की मृत्यु के पश्चात् जब कंस राजा बना और उपकंस युवराज हुआ तो उन्होंने कुल का नाश बचाने के लिए बहिन को आजीवन कुमारी रखने का निर्णय किया और एक दण्डीय प्रासाद बनाकर उसमें देवगर्भा को अकेली रख दिया । दासी नन्दगोपा को इसकी परिचारिका तथा नन्दगोपा के पति अन्धकवृष्णि को एकदण्डीय प्रासाद का रक्षक नियुक्त किया गया । इसी समय उत्तर मथुरा में महासागर राजा राज्य करता था जिसके सागर और उपसागर दो पुत्र थे । उपसागर और उपकंस में बडी मित्रता थी जब सागर मथुरा का राजा बना तब उसकी अकृपा का भाजन बनने के कारण उपसागर को मथुरा त्याग कर अपने मित्र उपकंस की शरण में जाना पडा । वहाँ वह राज्यसेवा में रख लिया गया । क्रमशः उसकी दष्टि एकदण्डीय प्रासाद पर गई और दासी नन्दगोपा के द्वारा उसे उसकी एकान्तवासिनी देवगर्भा के विषय में ज्ञात हुआ । उपसागर को देवगर्भा के प्रति एकाएक अनुराग हो गया । देवगर्भा ने उपसागर को भाई के साथ आते-जाते राजमार्ग में देखा तो वह भी उपसागर पर अनुरक्त हो गई । फिर तो नन्दगोपा की सहायता से दोनों प्रेमियों का गुप्त-मिलन होने लगा । यह रहस्य तब प्रकट हुआ जब देवगर्भा गर्भवती हुई । विवश होकर भाइयों ने देवगर्भा का विवाह उपसागर से कर दिया । साथ ही उन्होंने निर्णय लिया कि अगर उसे पुत्री प्राप्त हो तो भले ही जीवित रहे लेकिन अगर पुत्र प्राप्त हुआ तो उसका वध कर दिया जाएगा। समय पर देवगर्भा को पुत्री प्राप्त हुई । भाईयों ने उत्सव मनाकर उसका नाम अंजनादेवी रखा । बहिन-बहनोई के भरण-पोषण के लिए उन्होंने गोवर्धमान नामका गाँव उन्हें दिया और उपसागर के साथ देवगर्भा वहाँ रहने लगी। देवगर्भा फि, गर्भवती हुई, दैव योग से उसी समय नन्दगोपा भी गर्भवती बनी । जिस दिन देवगर्भा को पत्रोत्पत्ति हुई उसी दिन नन्दगोपा ने १ घट जातक, जर्नल आव द गुजरात रिसर्च सोसायटी, वर्ष १८, सं. ४, अक्टुबर १९५६ हिन्दी जैन साहित्य में कृष्ण का स्वस्प-विकास . 18
SR No.002435
Book TitleHindi Jain Sahitya Me Krishna Ka Swarup Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherParshva Prakashan
Publication Year1992
Total Pages190
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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