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________________ २६० दान : अमृतमयी परंपरा तपश्चरण, पठन-पाठन, स्वाध्यायादि कार्यों में वृद्धि होती है, वे ही देने योग्य हैं। वही देय वस्तु प्रशस्त है, जिससे राग नाश होता हो, धर्मवृद्धि होती हो, संयमसाधना का पोषण हो, विवेक जाग्रत होता हो, आत्मा उपशान्त होती हो । दान ऐसी वस्तु का नहीं देना चाहिए, जो लेनेवाले के लिए घातक हो, अहितकारक हो या हानिकारक हो। जैसे कोई व्यक्ति ऐसी वस्तु दान में देता है जो सड़ी, बासी या दुर्गन्धयुक्त हो, उससे लेने वाले का स्वास्थ्य खराब होता है, देने वाले की भी भावना विपरीत होती है । इस प्रकार सड़ी चीज दान देने वाले को भविष्य में उसका कटुफल भोगना पडता है । लेने वाला कई बार अपनी जरूरत के मारे ले लेता है, परन्तु अगर वह खाद्य वस्तु बिगड़ी हुई हो तो उसके स्वास्थ्य को बहुत बड़ी क्षति पहुँचाती है। ऐसा ही एक प्रसंग याद आता है - काशी में लक्ष्मीदत्त नाम का एक सेठ अन्नसत्र चलाता था। वहाँ सैंकड़ों अभावग्रस्त व्यक्ति भोजन करते थे। कुछ लोग आटा आदि लेकर स्वयं अपने हाथ से पकाते थे। लोगों की भीड को देखकर और प्रशंसा सुनकर सेठजी फूले नहीं समाते थे । सेठ के अनाज का व्यापार था । गोदाम में पुराना सड़ा-गला अनाज बचा रहता, सेठजी पुण्य लुटने एवं प्रशंसा पाने के लिए वही सड़ा अनाज अपने अन्नसत्र में भेज देते थे। उन्हें दान का यह तरीका लाभप्रद प्रतीत होता था। सेठजी की पुत्रवधू बड़ी विनीता, विचक्षणा और धर्ममर्मज्ञ थी। उसने देखा कि जो रोटिया अन्नसत्र में दी जाती हैं वे काली, मोटे आटे की और रद्दी-सी दी जाती हैं और आटा भी वैसा ही दिया जा रहा है। उसने अन्नसत्र के प्रबन्धक से बातचीत की तो वह बोला – “सेठ जी गोदाम से ऐसा ही अनाज भेजते हैं, हम क्या करें?" पत्रवधु को सेठजी के इस व्यवहार से बड़ा खेद हुआ । वह अन्नसत्र से थोड़ा-सा आटा अपने साथ घर पर ले आई और उसी सड़े आटे की मोटी, काली रोटी बनाकर उसने सेठ जी की थाली में परोसी । पहला कौर मुँह में लेते ही थू-थू करते हुए सेठ बोले - "बेटी ! क्या घर में और आटा नहीं है ? यह सड़ी ज्वार का आटा तूने कहां से मंगवा लिया ? क्या घर में अच्छा आटा समाप्त हो गया ?" बहू ने अत्यन्त नम्रतापूर्वक कहा - "पिताजी ! आपने जो यहाँ अन्नसत्र खोल रखा है, मैं कल
SR No.002432
Book TitleDan Amrutmayi Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherParshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
Publication Year2012
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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