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________________ 21 होगा। संसार के प्रत्येक धर्म, सम्प्रदाय अथवा धार्मिक आस्था के उपरांत समाज में भी दान की परंपरा रही है और इसकी आवश्यकता तथा उपयोगिता मानी जाती है । पर कुछ देश में यह भावना जन्मजात पाई जाती है, जैसे कि भारत में । वहाँ यह भावना एक संस्कार के रूप में प्रकट होती है। चूंकि भारतीय मनीषा प्रारम्भ से ही चिन्तनशील व वैज्ञानिक रही है, अतः वह किसी भी वस्तु को धर्म मानकर उसका अन्धानुकरण नहीं करती, अपितु उस पर दार्शनिक और ताकिक दृष्टि से भी विचार करती है। उसके स्वरूप, प्रक्रिया विधी, देशकालानुसार उपयोगिता, गुण-दोष आदि समस्त पहलुओं पर चिन्तन कर धर्म-अधर्म का निर्णय करने में भारतीय चिंतक विश्व में सदा अग्रणी रहे हैं। 'दान' जैसे जीवन और जगत से अटूट सम्बन्ध रखने वाले विषय पर भी भारतीय विचारकों ने और खासकर जैन मनीषियों ने व्यापक चिन्तन किया है, तर्क-वितर्क कर उसमें गुत्थियाँ पैदा भी की हैं और उन्हें सुलझाई भी है। 'दान' दो अक्षरों का बहुत ही महत्वपूर्ण शब्द है जो हृदय को विराट बनाता है और जीवन को निर्मल बनाता है । दान एक प्रशस्त धर्म है तथा धर्म का प्रवेशद्वार है । बिना दान दिये धर्म में प्रवेश नहीं हो सकता । दान से आत्मा का अन्धकार नष्ट होता है। अन्तर के अन्धकार को नष्ट करने के लिए दान सूर्य के समान है। कलियुग में दान से बढ़कर धर्म नहीं है। लेकिन दान धर्म तभी बन सकता है जब वह हृदय के भावों से ओतप्रोत होता है। एक पाश्चात्य विचारक ने लिखा है "They who scatter with one hand, gather with two; Nothing multiplies so much as kindness." जो एक हाथ से बाँटता है वह दोनों हाथों से प्राप्त कर लेता है, दयादान की तरह वृद्धि पाने वाली अन्य वस्तु नहीं है जिसका गुणाकार होता हो। एक अन्य विचारक ने भी कहा है - "The hand that gives, gathers." जो अपने हाथ से दान देता है वह इकट्ठा करता है। दान सम्पूर्ण मानवजाति का आधारभूत तत्त्व है। स्वामी रामतीर्थ
SR No.002432
Book TitleDan Amrutmayi Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherParshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
Publication Year2012
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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