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________________ ४९६) श्री श्वेतांबर जैन तीर्थ दर्शन : भाग - २ 100 ००JA 3%20 0000 %OO पुराना समवशरण पादुका (५) श्री पावापुरी तीर्थ मूलनायक श्री महावीर भगवान की चरण पादुका यह तीर्थ गांव के बाहर पद्म सरोवर के बीच में है। नगरी का अपापापुरी नाम था। परंतु भगवान के निर्वाण से पापापुरी नाम हुआ और बाद में पावापुरी प्रसिद्ध हुआ। उस समय हस्तिपाल राजा वहाँ राज्य करते थे। उनकी कचहरी में भगवान महावीर ने आखिरी चातुर्मास किया था। आसोज वदी १४ को प्रभु ने गौतमस्वामी को पास के गांव में देवशर्मा ब्राह्मण को प्रतिबोध करने के लिए भेजा था। भगवान ने १६ प्रहर देशना देकर अमावस्या के पिछले प्रहर में निर्वाण पद की साधना की। अंतिम देशना में पिचपन अध्ययन पुण्य फल को कहने वाले और पिचपन अध्ययन पाप फल को कहने वाले तथा छत्तीस अध्ययन अपृष्ट व्याकरण कहे। वह उत्तराध्ययन सूत्र का निरूपण था। देवों ने रत्नों और अठारह गणराजाओं ने दीपक किये। तब से दीपावली कहलाई। गौतम स्वामी वापिस आते भगवान के निर्वाण के समाचार सुनकर विलाप करने लगे और वीतराग पद का अर्थ विचारकर केवलज्ञान को प्राप्त किया। देवों ने उनका भी केवलज्ञान का महोत्सव किया। अंतिम देशना स्थल यह गांव मंदिर तथा अग्निसंस्कार भूति यह जलमंदिर है। चरण पादुकाओं में सं. १६४५ का लेख है। वि. सं. १२६० में पू. अभयदेव सूरीश्वरजी प्रतिष्ठित धातु के प्रतिमाजी थे। वह अभी गांव के मंदिर में है। गांव का मंदिर हस्तिपाल की कचहरी और भगवान की अंतिम देशना का स्थल माना जाता है। जीर्णोद्धार समय-समय पर होते रहते हैं। इस मंदिर में वर्तमान भगवान महावीर की चरण पादुकाओं के उपर वि. सं. १६४५ वैसाख सुद तीज का लेख है। जीर्णोद्धार के समय नयी पादुकाएँ प्रतिष्ठित हुई है। प्रभु महावीर के निर्वाण स्थल के उपर दीपावली का मेला आसोज वद अमावस्या निर्वाण कल्याणक के दिन मनाया जाता है। इसी रात्रि के अंतिम प्रहर में लड्डू चढ़ाते हैं। यात्री टूर उस दिन यहाँ आते हैं। चाहे जितनी व्यवस्था, हो परन्तु उस दिन कम पड़ती है। पहले समय में पांच दिन का मेला भरता था उसी प्रकार विविध तीर्थ कल्प में श्री जिनप्रभ सू. म. ने लिखा है कि यह महोत्सव चारों वर्ण के लोक को प्रकाशित करता है। उसी रात्रि को देव प्रभावती कुएं में से लाए जल से पूर्ण दीपक में तेल बिना दीपक प्रज्वलित होता है। अभी पावा और पुरी दो अलग गांव है। अपना तीर्थ धाम पुरी में है। दीपावली के दिन जल मंदिर के प्रभु की चरण पादुका के उपर लगा छत्र स्वयमेव हिलने लगता है। यात्रीगण दर्शन करके धन्य होते हैं। यहाँ प्रभ महावीर की प्रथम देशना हुई है। इसके कारण इस स्थान पर नया सुंदर समवशरण मंदिर का निर्माण हुआ है। प्रभु महावीर श्री इन्द्रभूति गौतम ने भी यहाँ मिलकर शंका दूर कर दीक्षा लेकर प्रथम गणधर बने थे। 26
SR No.002431
Book TitleShwetambar Jain Tirth Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendrasuri
PublisherHarshpushpamrut Jain Granthmala
Publication Year2000
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size75 MB
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