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________________ * होशः सत्व का द्वार * ज्यादा हो जाएगा; उतने आप साधु, उतने आप सात्विक हो जाएंगे। | शासक हो गया। तो सेवक था, शायद मजबूरी थी इसलिए। अब यह बड़े मजे की बात है। क्योंकि कृष्ण जैसा कह रहे हैं, ऐसा कोई सेवक बनने को तैयार नहीं। या अब भी अगर कोई सेवक आमतौर से धार्मिक लोग नहीं समझते हैं। धार्मिक लोग समझते हैं, बनता है, तो साधन की तरह, क्योंकि शासक तक जाने का रास्ता अच्छे काम करो, तो सात्विक हो जाएंगे। कृष्ण लेकिन अच्छे काम | सेवक होने से गुजरता है। को कुछ जगह नहीं दे रहे हैं। कृष्ण कहते हैं, होशपूर्वक! चाहे करो अगर आपकी गर्दन दबानी हो, तो पैर दबाने से शुरू करना और चाहे न करो, लेकिन होशपूर्वक रहो, तो सात्विकता पैदा होगी। | चाहिए। धीरे-धीरे आप आश्वस्त हो जाते हैं कि आदमी पैर ही दबा तो एक आदमी खाली भी बैठा हो और होश से भरा हो, तो | | रहा है, कोई खतरा नहीं है। जैसे ही आप आश्वस्त होते हैं, वह सात्विक होगा। और एक आदमी समाज की सेवा कर रहा हो, आदमी आगे बढ़ता चला जाता है। जब तक आपकी गर्दन तक मरीजों की अस्पताल में देखभाल कर रहा हो और होशपूर्वक न हो, आता है, तब तक आप सोए होते हैं; तब दबाने में कोई अड़चन तो सात्विक नहीं होगा। आप अपनी जान भी दे दें सेवा में, लेकिन नहीं रह जाती। सीधे गरदन को ही दबाना कोई शुरू करे, तो आप होश न हो, तो आप सात्विक नहीं होंगे। और आप कभी जिंदगी में | भी चौंक जाएंगे। आप भी कहेंगे, यह किस तरह की सेवा है? किसी की सेवा न किए हों, आलस्य में बैठे रहे हों, लेकिन भीतर शासक बनना हो, तो पैर दबाने से शुरू करना आसान पड़ता आलस्य के होश जगा रहा हो, तो आप सात्विक होंगे। है। सेवा भी सत्ता में पहुंचने का उपाय हो जाती है। इस मुल्क में इसका यह मतलब नहीं है कि सात्विक आदमी अच्छे काम नहीं | हुई। सभी जगह होगी। लेकिन भ्रांति सेवकों में नहीं थी; सेवकों को करेगा। सात्विक ही अच्छे काम कर सकता है। लेकिन सात्विकता जो समझाया गया, उस मूल सूत्र में थी। अच्छे काम करने से नहीं आती; अच्छे काम सात्विकता से आते हैं। सेवा धर्म नहीं है, यद्यपि धर्म सेवा है। तो जो जितना जागा हुआ है, वह उतना प्रेमपूर्ण होगा। वह उतना तो जो व्यक्ति जितना सचेतन हो जाएगा भीतर, उसके जीवन से करुणामय होगा, वह उतना तत्पर होगा कि किसी का दुख मिटा | जो भी होगा, वह शुभ होगा। फिर जरूरी नहीं है कि वह सेवा करे सके, तो मिटाने की कोशिश करे। यह सेवा पैदा होगी उसकी | ही। क्योंकि रमण ने किसी की कोई सेवा नहीं की ज्ञात में। कोई नहीं जागरूकता से; उसकी जागरूकता का परिणाम होगी। कह सकता कि उन्होंने किसी का पैर दबाया, कोढ़ी की मालिश की। लेकिन इससे बडी भ्रांति पैदा हुई है। इससे ऐसा लगता है कि रमण बिलकल खाली बैठे रहे। प्रत्यक्ष में तो कोई सेवा रमण ने नहीं जो सेवा कर रहा है, वह सात्विक हो गया। इस भ्रांति को गांधी ने | की। अप्रत्यक्ष में की। लेकिन वह तो केवल वे ही देख सकते हैं, इस देश में काफी जोर दिया। अच्छा काम करो। समाज का, देश जिनको अप्रत्यक्ष देखना आता हो। का, दरिद्र का, दीन का कुछ हित करो, कल्याण करो, यही साधुता अगर सेवकों में गिनना हो, तो गांधी को, विनोबा को गिना जा का लक्षण है। सेवा धर्म है, गांधी ने कहा। | सकता है। रमण को कोई भूलकर नहीं गिनेगा। सेवा कहीं दिखाई शब्द बड़े अच्छे हैं। और जिनके पास बहुत गहरी परख नहीं है, | नहीं पड़ती। लेकिन जो भी व्यक्ति धर्म को उपलब्ध हो जाता है, उन्हें बिलकुल ठीक लगेंगे। लेकिन बिलकुल विपरीत हैं। धर्म सेवा | उससे कल्याण तो होता ही है। है; लेकिन सेवा धर्म नहीं है। धार्मिक व्यक्ति से सेवा उठेगी; कुछ हैं जो स्थूल कल्याण में लगते हैं, कुछ हैं जो सूक्ष्म कल्याण लेकिन कोई सेवा को ही साध ले, तो धार्मिक हो जाएगा, इस भूल में लग जाते हैं। उनकी मौजूदगी कल्याण का महास्रोत हो जाती है। में पड़ने की कोई भी जरूरत नहीं है। इसका परिणाम भी सामने है, उनके आस-पास से गुजरने वाले लोग, जहां तक उनकी हवाएं लेकिन फिर भी मुल्क जागता नहीं। उनकी खबर को ले जाती हैं, उनके अस्तित्व की सुगंध को ले जाती गांधी ने जितने सेवक पैदा किए थे, वे सब शोषक सिद्ध हुए। | हैं, वहां-वहां तक न मालूम कितने जीवन रूपांतरित होते हैं। जिनको उन्होंने तैयार किया था सब कुछ छोड़ देने के लिए, त्याग | निश्चित ही वे किसी के शरीर की बीमारी दूर करने नहीं जाते। के लिए, वे सत्ताधिकारी हो गए और उन्होंने सब कुछ पकड़ लिया। | लेकिन शरीर से गहरी बीमारियां हैं। और शरीर को बिलकुल स्वस्थ छोड़ने की तो बात ही अलग हो गई। कर दिया जाए, तो भी वे बीमारियां नहीं मिटती हैं। उन बीमारियों जैसे ही मुल्क से सत्ता बदली, जो सेवक था, वह अचानक को दूर करने का अपरोक्ष, अप्रत्यक्ष आयोजन उनकी मौजूदगी से
SR No.002410
Book TitleGita Darshan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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