SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 82
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ * गीता दर्शन भाग-7 * यह भाव अचेतन में संगृहीत हो रहा होगा। आते-आते, जैसे बीज | कृष्ण के लिए अर्जुन पारदर्शी है, ट्रांसपैरेंट है। टूटता है, अंकुर जमीन तक आते-आते समय लगता है, ऐसे | ___ इसलिए ज्ञानी के पास अज्ञानी को एक तरह का भय लगता है। अचेतन से चेतन तक खबर आने में समय लगता है। | वह भय बिलकुल स्वाभाविक है। आप ज्ञानी के पास जाने से बचते और शायद यह जो उसका भाव है विकर्षण का कि यह व्यक्ति | | भी हैं, डरते भी हैं। उस भय और बचाव के पीछे कारण है। क्योंकि आकर्षक नहीं है; घृणा पैदा होती है; यह शायद सिर्फ रक्षा का | | जो-जो आपके भीतर छिपा है, जो-जो आपने छिपा रखा है, जिसे उपाय है। वह जो भीतर से अंकुर आ रहा है इस व्यक्ति के प्रति | | आपने अपने से ही छिपा रखा है, जिसे आप भूल ही चुके हैं कि आकर्षण का, उससे अपने को बचाने के लिए कवच है। चेतन मन आपके भीतर है, वह भी ज्ञानी की आंख के सामने उभरने लगेगा ने एक कवच बना लिया है। जिससे हम बचना चाहते हैं, उसके | | और प्रकट होने लगेगा। आप अपने को छिपा न पाएंगे। प्रति हम बरे भाव ले लेते हैं। ___ और कोई आपको आर-पार देख ले, तो बेचैनी अनुभव होगी। __ असल में बुरे भाव हम तभी लेते हैं, जब हम आकर्षित हो जाते कोई आपकी आंखों में उतरकर आपको भीतर तक पकड़ ले, तो हैं। विकर्षण कभी पैदा नहीं होता; पहले आकर्षण पैदा होता है। | आप बहुत चिंता में पड़ जाएंगे। क्योंकि आप आश्वस्त नहीं हैं अपने घृणा कभी पैदा नहीं होती; पहले प्रेम पैदा होता है। शत्रु कोई पहले | | रूप से। और आप निर्भय रूप से अपने को स्वीकार भी नहीं किए नहीं बना सकता; पहले तो मित्र बनाना ही होगा, तब ही हम किसी | हैं। बहुत-सा हिस्सा अस्वीकृत है, जिसको आपने अपने ही तलघरों को शत्रु बना सकते हैं। में छिपा रखा है। वह आप भी जानते हैं कि गंदा है। उसे कोई जान लेकिन कई बार ऐसा होता है कि किसी आदमी को देखकर ही ले, उसे कोई उघाड़ दे, उसे कोई पहचान ले; आप छिपाए हुए हैं। हमें लगता है कि शत्रुता का भाव मालूम होता है; उसका मतलब __ आपने अपने असली चेहरे को न मालूम कहां छिपा रखा है। है कि उस आदमी को देखते ही पहले अचेतन में मित्रता का भाव | आपने कुछ मुखौटे पहन रखे हैं। पैदा हो गया। कृष्ण इन सारी चर्चाओं के बीच अर्जुन को बहुत-बहुत ढंग से शत्रुता सीधी पैदा नहीं हो सकती, वह मित्रता के बाद ही पैदा हो | उघाड़ रहे हैं। वे उसकी भीतरी प्रतिक्रियाओं को, संवेदनाओं को सकती है। और घणा भी सीधी पैदा नहीं होती. वह प्रेम के बाद ही पकड रहे हैं। वे उसके मन के कांटे को देख रहे हैं कि वह किस पैदा हो सकती है। इसीलिए घृणा, शत्रुता नकारात्मक हैं, निगेटिव | तरह डांवाडोल होता है, वह कहां जा रहा है। और इसके पहले कि हैं। निगेटिव कभी सीधा पैदा नहीं होता; पहले पाजिटिव चाहिए। | अर्जुन निर्णय पर आए...। क्या आप सोच सकते हैं कि कोई आदमी जन्मे ही नहीं और मर | और वह निर्णय क्रांतिकारी होगा। क्योंकि जब संशय गिरता है जाए! मरने के पहले जन्म जरूरी है। क्योंकि मृत्यु नकारात्मक है। | और असंशय श्रद्धा पैदा होती है, तब एक महान आनंद का क्षण मृत्यु होगी किसकी? जीवन में उपस्थित होता है। जब सारी अश्रद्धा टूट जाती है और अगर प्रेम पैदा नहीं हुआ, तो घृणा होगी कैसे पैदा? और अगर | परम आस्था का उदय होता है, तो यह एक जन्म है, एक महाजन्म आकर्षण पैदा नहीं हुआ, तो विकर्षण का कोई उपाय नहीं है। अगर है, अंधकार के बाहर, प्रकाश में। सारा भटकाव समाप्त हुआ। कोई मरे, तो मान लेना चाहिए कि वह जन्म गया होगा। बिना जन्मे | | मंजिल आंखों के सामने आ गई। अब कितनी ही दूर हो, चलने की तो कोई मर नहीं सकता। मृत्यु जन्म का आखिरी छोर है। विकर्षण | ही बात है। लेकिन मंजिल पर कोई शक न रहा। आकर्षण का आखिरी छोर है। आकर्षण पहले अचेतन में पैदा हो | __ और जब ऐसी घड़ी आती है, तो गुरु, इसके पहले कि शिष्य को जाएगा, तो हम उससे बचने के लिए विकर्षण की परिधि बना लेंगे। | पता चले, जान लेता है। क्योंकि शिष्य का पूरा आभामंडल, उसका अब वह भीतर की चोट चेतन तक आ गई, तो अब घबड़ाहट | | पूरा व्यक्तित्व बदलने लगता है। जहां वह अशांत था, वहां शांत पैदा हो गई है। अब डर पैदा हो गया है। होने लगता है। जहां वह बेचैन था, वहां एक चैन की हवा उसके आपके भीतर भी क्या पैदा होता है, इसको आपको भी पता चारों तरफ पैदा हो जाती है। जहां वह दौड़ रहा था, अब ठहर गया। लगाने में कभी-कभी वर्षों लग जाते हैं। लेकिन अर्जुन के भीतर जहां लगता था, जीवन व्यर्थ है, कुछ सार नहीं, वहां लगता है कि क्या हो रहा है, इसको पता लगाने में कृष्ण को वर्षों नहीं लगेंगे। | परम निधि उपलब्ध हो गई; कोई खजाना मिल गया, जो कभी भी
SR No.002410
Book TitleGita Darshan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy