SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 48
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ * गीता दर्शन भाग-7 * सवाल ही नहीं उठ सकता कि निगोद क्या है। यह शब्द ही व्यर्थ है। खुद हो जाना चाहते हैं। और जहां-जहां संघर्ष है, प्रतिस्पर्धा है, युद्ध लेकिन जैन के मन में उठता है। इसलिए नहीं कि उसके जीवन की है, वहां-वहां सवाल है, क्या इसका कोई मूल्य है? समस्या है। उसने किताब में पढ़ा है। पढ़ा है, तो सवाल उठता है। एक राजनीतिज्ञ कभी नहीं पूछता कि मैं इतनी दौड़-धूप कर रहा बौद्ध कभी नहीं पूछते कि परमात्मा कहां है, क्योंकि उनके शास्त्र | | हूं, इतने लोगों को खींचकर पीछे करूंगा, आगे जाऊंगा, क्या में लिखा है, परमात्मा है ही नहीं। हिंदू पूछते हैं, परमात्मा कहां है ? | इसका सच में कोई मूल्य है कि इतना उपद्रव लिया जाए? उसका रूप क्या है ? उसने सृष्टि क्यों बनाई ? जैन कभी नहीं पूछता धन की खोज में दौड़ने वाला कभी नहीं सोचता कि मेरे धन की कि परमात्मा ने सृष्टि क्यों बनाई! क्योंकि जैन मानता ही नहीं कि | तलाश से कितने लोग निर्धन हो जाएंगे। क्या धन का इतना मूल्य सृष्टि बनाई गई है। वह मानता है, सृष्टि शब्द ही गलत है। इसका है कि इतने लोग दुखी और पीड़ित हो जाएं? मेरी तिजोरी भर कभी सृजन हुआ नहीं है। अस्तित्व सदा से है। असृष्ट है। इसकी जाएगी, लेकिन कितने पेट खाली हो जाएंगे! क्या तिजोरी को भरने कोई सृष्टि कभी नहीं हुई। इसलिए बनाने वाले का तो कोई सवाल | में इतनी कोई सार्थकता है? नहीं है। तराजू पर अगर तौले कोई भी, तो जो भी आप कर रहे हैं, लेकिन ये सब सवाल शास्त्रीय हैं। ये आपने कहीं पढ़ लिए, आपको पूछना ही पड़ेगा कि यह करने योग्य है? इसके करने का पढ़ने से आपके मन में पैदा हुए हैं। ये उधार हैं। आपने ही जीवन परिणाम जो चारों तरफ हो रहा है, उतना मूल्य चुकाया जाए, ऐसी में इनको नहीं खोजा है। शब्द आपके भीतर गए, और शब्दों से नए यह मंजिल है? इतनी यात्रा की जाए और पहुंचें कहीं भी न...। शब्द पैदा हो गए हैं। शब्दों की संतान हैं। प्रत्येक व्यक्ति महाभारत में खड़ा है। और प्रत्येक व्यक्ति के लेकिन हिंदू मेरे पास आता है, वह पूछता है, क्रोध से कैसे मुक्त सामने यही सवाल है, मैं दूसरे को मिटाऊं अपने होने के लिए? होऊं? जैन आता है, वह भी पूछता है, क्रोध से कैसे मुक्त होऊ? अर्जुन के सामने सवाल है कि मैं अपने को बचाने के लिए इन बौद्ध आता है, वह भी पूछता है, क्रोध से कैसे मुक्त होऊं? यह सबको मिटाऊं? उसके सामने सवाल है कि इनमें मेरे मित्र भी हैं, सवाल शास्त्र से नहीं आ रहा है; यह जीवन से आ रहा है। शास्त्र | | मेरे संबंधी भी हैं। खुद अर्जुन का गुरु सामने दुश्मन के दल में खड़ा के सवाल तीनों के अलग हैं। जीवन का सवाल तीनों का एक है। | है। जिससे मैंने सब सीखा, जो मैंने सीखा है जिससे, उसको ही और जब भी कोई व्यक्ति जीवन से उठने लगेगा, पूछने लगेगा, | | मिटाने के काम में लाऊं? प्रियजन हैं, संबंधी हैं। घर का ही झगड़ा तो प्रश्न एक हो जाएगा। क्योंकि हर मनुष्य की कठिनाई एक है। है, पारिवारिक युद्ध है। शास्त्र अलग हैं; आदमी एक है। शास्त्र भिन्न-भिन्न हैं; आदमी का ध्यान रहे, सारे युद्ध पारिवारिक हैं, क्योंकि मनुष्यता परिवार है। स्वभाव एक है। आप किसी से भी लड़ रहे हों, आपके ही भाई से लड़ रहे हैं। वह इसलिए गीता अनूठा है शास्त्र। और इसलिए गीता हिंदू के भी | भाई कितने पीछे आपसे जुड़ा है, यह दूसरी बात है। लेकिन अगर काम आ सकता है, मुसलमान के भी काम आ सकता है, जैन के | आप पीछे जाएंगे, तो कहीं न कहीं पाएंगे कि आपके दोनों का पिता भी काम आ सकता है। क्योंकि जिस समस्या से वह उठा है, वह | कहीं न कहीं पीछे एक था। समस्या सबकी समस्या है। जब मैं कहता हूं, सबकी समस्या है, | ईसाई कहते हैं कि एक आदमी आदम और महिला ईव, उन दोनों तो आपको थोड़ी हैरानी होगी, क्योंकि आप कोई महाभारत के युद्ध | से ही सारी मनुष्यता पैदा हुई है। वह ठीक ही है। कहानी ठीक ही में खड़े हुए नहीं हैं। फिर से सोचें तो आप पाएंगे कि आप महाभारत | है। हम आज कितने ही दूर हों...। वृक्ष की शाखाएं एक-दूसरी के युद्ध में ही खड़े हुए हैं। शाखाओं से बहुत दूर निकल जाती हैं। उपशाखाएं पहचान भी नहीं हर मनुष्य युद्ध में खड़ा हुआ है। प्रतिपल युद्ध है। किसी न किसी | | सकतीं। लेकिन नीचे जड़ में एक वृक्ष से जुड़ी हैं। . से लड़ ही रहे हैं। और जब लड़ रहे हैं, तो किसी न किसी की मृत्यु सारी मनुष्यता एक वृक्ष है। और सारा संघर्ष पारिवारिक है। और और जीवन आपके हाथ में है। चाहे इंच-इंच किसी को मिटा रहे हों, | | जब भी आप किसी को मिटा रहे हैं, तो अपने ही किसी को मिटा चाहे इकट्ठा मिटा रहे हों, लेकिन किसी को आप मिटा रहे हैं, मिटाना | | रहे हैं। कितना ही अपरिचय हो गया हो, लेकिन जहां भी कोई चाह रहे हैं। किसी को समाप्त कर देना चाहते हैं। किसी की जगह | मनुष्य है, वह मुझसे जुड़ा है। मनुष्य होने के कारण हम एक परिवार
SR No.002410
Book TitleGita Darshan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy