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________________ * गीता दर्शन भाग-7 * प्रार्थना परमात्मा बना देती है। प्रार्थना करते-करते ऐसा नहीं होता है। प्रार्थना की कला संयोग को काटना, स्वभाव को बचाना है। कि आप परमात्मा को पा लेते हैं; प्रार्थना करते-करते ऐसा होता है | जापान में झेन फकीर अपने शिष्यों को कहते हैं, एक ही चीज कि आप खो जाते हैं और परमात्मा बचता है। | खोजने जैसी है, वह है ओरिजनल फेस, तुम्हारा मौलिक चेहरा। प्रार्थना की परिपूर्ण उपलब्धि आपके भीतर परमात्मा का | शिष्य सदियों से पूछते रहे हैं गुरुओं से, कि क्या अर्थ है आपका? आविष्कार है। प्रार्थना एक विधि है, जिससे हम अपने भीतर को | मौलिक चेहरे का क्या अर्थ है? तो गुरुओं ने कहा है, जब तुम पैदा निखारते हैं; वह एक छेनी है, जिससे हम पत्थर को तोड़ते हैं। और | नहीं हुए थे, तब तुम्हारा जो चेहरा था, या जब तुम मर जाओगे, तब पत्थर में मूर्ति छिपी है। सिर्फ व्यर्थ पत्थर को तोड़कर अलग कर | जो शेष बचेगा, वह तुम्हारा मौलिक चेहरा है, वह स्वभाव है, वह देना है, मूर्ति प्रकट हो जाएगी। ओरिजनल है। मूर्तिकार मूर्ति को बनाता नहीं, केवल उघाड़ता है। अनगढ़ पत्थर | प्रार्थना उसको बचा लेती है। और वही परमात्मा है। जो स्वभाव में छिपी जो पड़ी थी, मूर्तिकार उसे बाहर ले आता है। अनगढ़ पत्थर | | है, वही परमात्मा है। जिसे हमने कभी पाया नहीं, जिसे हमने कभी में जो-जो अंग व्यर्थ थे, गैर-जरूरी थे, उनको अलग करता है।। | अर्जित नहीं किया और जिसे हम चाहें भी, तो खो न सकेंगे; जिसे इसे थोड़ा ठीक से समझें। | खोने का कोई उपाय नहीं है; जो मेरी निजता है, जो मेरा होना है, मूर्तिकार मूर्ति को बनाता नहीं है, केवल उघाड़ता है, निर्वस्त्र | मेरा बीइंग है; वही परमात्मा है और प्रार्थना उसकी तलाश है। करता है; वह जो ढंका था, उसे अनढंका कर देता है। मूर्ति तो थी। | इसलिए मैंने कहा कि प्रार्थना परमात्मा को पहुंचने का मार्ग है। ही, उस पर कुछ अनावश्यक भी जुड़ा था, उस अनावश्यक को और यह भी कहा कि प्रार्थना जीवन की शैली है। . तोड़ता है। निश्चित ही, प्रार्थना कोई एक कोने में नहीं हो सकती। ऐसा प्रार्थना आप में जो अनावश्यक है, उसको तोड़ती है; जो | नहीं हो सकता कि सुबह आप प्रार्थना कर लें और फिर भूल जाएं। अनिवार्य है, उसको बचाती है। जो आत्यंतिक है, वही शेष रह | ऐसा नहीं हो सकता कि एक दिन रविवार को चर्च में प्रार्थना कर जाता है; और जो भी सांयोगिक है, वह हट जाता है। लें, कि धार्मिक उत्सव के दिन प्रार्थना कर लें, और फिर विस्मरण __ आपके जीवन के सारे संबंध सांयोगिक हैं, कि आप पिता हैं, कर दें। प्रार्थना कोई खंड नहीं हो सकती, प्रार्थना जीवन की शैली कि पति हैं, या पत्नी हैं, या बेटे हैं; कि आप अमीर हैं कि गरीब हो सकती है। हैं; कि आप बच्चे हैं, कि जवान हैं, कि बूढ़े हैं; सब सांयोगिक है। जीवन की शैली का अर्थ यह है कि आप प्रार्थनापूर्ण होंगे, तो यह आपका होना वास्तविक होना नहीं है, कि आप गोरे हैं, कि आपके चौबीस घंटे प्रार्थनापूर्ण होंगे। प्रार्थना अगर होगी, तो श्वास काले हैं; सुंदर हैं, कुरूप हैं। यह सब सांयोगिक है, यह जैसी होगी। आप ऐसा नहीं कह सकते कि सुबह श्वास लूंगा, ऊपर-ऊपर है; यह आपकी वास्तविकता नहीं है। यह सब छांट दोपहर विश्राम करूंगा; कि जब फुरसत होगी तब श्वास ले लेंगे, देगी प्रार्थना। केवल वही बच जाएगा, जो नहीं छांटा जा सकता। बाकी काम बहुत हैं। केवल वही बच जाएगा, जो आप जन्म के साथ हैं। केवल वही बच प्रार्थना श्वास जैसी बन जाए, तो शैली बनी। उसका अर्थ यह जाएगा, जो मृत्यु के बाद भी आपके साथ रहेगा। हुआ कि प्रार्थना करने की बात न हो, प्रार्थना आपके होने का ढंग तो प्रार्थना मृत्यु की तरह है। वह आपके भीतर सब छांट | हो जाए। उठे तो प्रार्थनापूर्ण हों; बैठे तो प्रार्थनापूर्ण हों; भोजन करें डालेगी, जो व्यर्थ है, कचरा है, जो संयोग था, जो स्वभाव नहीं है। तो प्रार्थनापूर्ण हों। - ये दो शब्द समझ लेने जैसे हैं, संयोग और स्वभाव। संयोग वह | हिंदू सदियों से भोजन के पहले ब्रह्म को स्मरण करता रहा है। है, जो आपको रास्ते में मिल गया है। एक दिन आपके पास नहीं | वह भोजन को प्रार्थनापूर्ण बनाना है। स्वयं को भोजन दे, इसके था, आज है, एक दिन फिर नहीं होगा। स्वभाव वह है, जो आपको | पहले परमात्मा को देता रहा है। उसका अर्थ है कि संयोग के पहले रास्ते में नहीं मिला: जिसको लेकर ही आप रास्ते पर उतरे हैं। जो स्वभाव स्मरणीय है। मैं गौण हं: मेरे भीतर जो छिपा. सबके भीतर जीवन के पहले था, वह स्वभाव है; जीवन के बाद भी होगा, वह | | छिपा जो परमात्मा है, वह प्रथम है। तो सबसे पहले उसका स्मरण। स्वभाव है। जो जन्म और मृत्यु के बीच में मिलता है, वह संयोग आप पूछेगे कि उठना-बैठना कैसे प्रार्थनापूर्ण हो सकता है? 300/
SR No.002410
Book TitleGita Darshan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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