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________________ * गीता दर्शन भाग-7 होते-होते हम सोम का पता लगा लेंगे। क्योंकि सोम इन्हीं से सूरज भी मैं हूं। इस जगत में जो तेज है, वह भी मेरा है; और इस मिलती-जुलती कोई चीज होनी चाहिए। इनसे बहुत श्रेष्ठ, लेकिन जगत में जो शांति है, सन्नाटा है, वह भी मेरा है। इस जगत में जो इनसे मिलती-जलती। क्योंकि वेद में जो वर्णन है सोम का कि ऋषि तरंगें हैं. वे भी मेरी हैं। इस जगत में जो मौन है. वह भी मेरा है। सोम को पी लेते हैं और समाधिस्थ हो जाते हैं, और परमात्मा के | इस जगत का जो ताप-उत्तप्त व्यक्तित्व है, वह भी मैं हूं; और इस आमने-सामने उनकी चर्चा और बातचीत होने लगती है। इस लोक | जगत का जो शांत समाधिस्थ व्यक्तित्व है, वह भी मैं हूं। से रूपांतरित हो जाते हैं; किसी और आयाम में प्रविष्ट हो जाते हैं। | मैं ही सब प्राणियों के शरीर में स्थित हुआ वैश्वानर अग्निरूप हो सकता है, सोम इस तरह का रासायनिक रस रहा हो कि | होकर प्राण और अपान से युक्त हुआ अन्न को पचाता हूं। और मैं समाज को उसे विलुप्त कर देना पड़ा हो। क्योंकि समाज उसके | ही सब प्राणियों के हृदय में अंतर्यामीरूप से स्थित हूं। सहारे नहीं चल सकता। अगर लोग बहुत आनंदित हो जाएं, ___ यह काफी महत्वपूर्ण बात है, सभी प्राणियों के हृदय में नाचने-गाने लगें और तल्लीन रहने लगें, तो समाज नहीं चल | अंतर्यामीरूप से स्थित हूं। सकता है। समाज के लिए थोड़े दुखी, परेशान लोग चाहिए; वे ही आपके भीतर कहां अंतर्यामी है? अगर आप अपने अंतर्यामी को चलाते हैं। उनके बिना नहीं चल सकता। पकड़ लें, तो कृष्ण के चरण हाथ में आ गए। कौन-सा तत्व है । अगर सभी लोग प्रसन्न हों, तो बहुत मुश्किल है काम। किसको | आपके भीतर जो अंतर्यामी है? कैसे उस तत्व को पकड़ें? । लगाइएगा दौड़ में कि तू फैक्टरी चला। वह कहेगा, ठीक है; रोटी | | अंतर्यामी का अर्थ होता है, भीतर का जानने वाला। भीतर जो मिल जाती है। किसको दौड़ में लगाइएगा कि तू दिल्ली जा! वह | | छिपा है जानने वाला। तो जिस तत्व को आप जान नहीं सकते और कहेगा, हम पागल नहीं हैं। हम जहां हैं, वहीं दिल्ली है। हम मजे जो सबको जानता है, धीरे-धीरे उसकी गहराई में डूबना है। __ शरीर को मैं जानता हूं। शरीर को देखता हूं। तो जिसे मैं जानता यह जो इतनी दौड़ चलती है, अर्थ की, राजनीति की, सब तरह हूं और देखता हूं, वह अलग हो गया, पृथक हो गया; वह मेरा की विक्षिप्तता की, इसके लिए दुखी लोग चाहिए। युद्ध चलते हैं, | | ज्ञाता न रहा, ज्ञेय हो गया; वह आब्जेक्ट हो गया। वह संसार का संघर्ष चलता है, और चैन नहीं है एक क्षण को; इसके लिए बेचैन | हिस्सा हो गया। लोग चाहिए। भीतर आंख बंद करता हूं, तो हृदय की धड़कन भी मैं सुनता हूं, हिप्पियों से अमेरिका डरा हुआ है। क्योंकि अगर सारे लड़के अपने हृदय की धड़कन भी सुनता हूं। तो यह हृदय की धड़कन मेरी और लड़कियां हिप्पियों जैसे हो जाएं, तो अमेरिका डूबेगा। इस | | न रही; यंत्रवत हो गई, शरीर की हो गई। मैं देखने वाला इसके पीछे अर्थ-तंत्र में उसकी कोई जगह न रह जाएगी। खड़ा हूं। इसको भी मैं सुनता हूं; इससे मैं अलग हो गया, फासला इनको लड़वाया नहीं जा सकता है। ये लड़ने से इनकार करते हैं। हो गया। और यह परिणाम है एल.एस.डी. और मारिजुआना और | | आंख बंद करता हूं, विचारों की बदलियां घूमती हैं। उनको भी मेस्कलीन का, तो सोम का क्या परिणाम रहा होगा! | मैं देखता हूं कि यह विचार जा रहा है; यह अच्छा, यह बुरा; यह सोम अदभुततम रस है। हिंदू धारणा से सभी वनस्पतियों में चांद क्रोध, यह लोभ। इन विचारों के पार मैं देखने वाला हो गया। उतरता है। लेकिन सोम नाम की जो वनस्पति है, उसमें चांद पूरा | समस्त ध्यान की प्रक्रियाएं इतनी ही चेष्टा करती हैं कि तुम्हें यह उतरता है। वह चांद की पूरी शांति को पी जाती है। उसके पत्ते-पत्ते | समझ में आना शुरू हो जाए कि तुम क्या-क्या नहीं हो। नेति-नेति; में, उसके फूल में, उसकी जड़ों में चांद छिप जाता है। और उसका यह भी मैं नहीं, यह भी मैं नहीं। काटते जाओ। जो भी दिखाई पड़ अगर विधिवत उपयोग किया जाए, तो समाधि फलित होती है। । जाए, जो भी ज्ञेय बन जाए, जो भी आब्जेक्ट बन जाए, उसे छोड़ते _ निश्चित ही, उस पर रोक लगाई गई होगी; उसको छिपाया गया | | जाओ; इलिमिनेट करो, नकार करो। और उस जगह ही रुको, जहां होगा या नष्ट कर दिया गया होगा। इसलिए बहुत खोज करके सिर्फ जानने वाला ही रह जाए। वह अंतर्यामी है। वह जो भीतर हिमालय में भी सोम वनस्पति उपलब्ध नहीं होती। | छिपा और सब जानता है; और किसी के द्वारा कभी जाना नहीं लेकिन कृष्ण यहां कह रहे हैं कि मैं वही सोम हूं। चांद भी मैं हूं, जाता। क्योंकि उसके पीछे जाने का कोई उपाय नहीं है। वह सबसे 242
SR No.002410
Book TitleGita Darshan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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