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________________ * आत्म-भाव और समत्व * वहां तो हम थे भी नहीं। जहां से हम रस्सियां बांधकर, योजनाएं भी साथ है। उस चर्च में बड़ी तैयारियां हो रही हैं। बड़े फूल लगाए करके, साधनाएं साधकर और आत्मा को पाने की कोशिश कर रहे गए हैं। और बड़े दीए जलाए गए हैं। और द्वार पर लाल दरी बिछाई थे, वहां तो हम थे भी नहीं। चांद तो सदा आकाश में है। वह किसी गई है। कोई स्वागत-समारंभ का इंतजाम हो रहा है। तो पत्नी पूछती कुएं में उलझा नहीं है। लेकिन कुओं में दिखाई पड़ता है। | है कि नसरुद्दीन, इस चर्च में? क्या होने वाला है? आत्म-भाव का अर्थ है कि हम चांद को आकाश में ही देखें, उस चर्च में एक विवाह की तैयारी हो रही है। नसरुद्दीन कहता कुओं में नहीं। आत्म-भाव का अर्थ है कि मेरी चेतना मेरे भीतर है। है, इस चर्च में? एक तलाक की तैयारी हो रही है। एक तलाक का और किसी और वस्तु से बंधी नहीं है, कहीं भी छिपी नहीं है। मैं | | प्रारंभ! . कहीं और नहीं हूं, मुझमें ही हूं। इसलिए सब तलाश कहीं और की | | विवाह तलाक का ही प्रारंभ है। सब सुख दुख के प्रारंभ हैं। व्यर्थ है। और सब तलाश दुख में ले जाएगी; विफलता परिणाम | लेकिन दुख थोड़ी देर में पता चलेगा, पहले सब सुख मालूम होगा। होगा। क्योंकि वहां वह मिलने वाली नहीं है। | जिसको हम पकड़ना चाहेंगे, उसमें सुख दिखाई पड़ेगा। और या इसको अगर आप सफलता कहते हों कि रस्सियां बांधकर, | | जिसको हम छोड़ना चाहेंगे, उसमें दुख दिखाई पड़ेगा। चांद को खींचकर और जब सिर फूटे और ऊपर आपको आकाश आत्म-भाव में स्थित व्यक्ति को न तो कुछ पकड़ने की आकांक्षा में दिखाई पड़ जाए, अगर आप समझते हों कि आपने चांद को | रह जाती है, न कुछ छोड़ने की, इसलिए सुख-दुख समान हो जाते मुक्त कर लिया, तो ऐसी ही स्थिति बुद्ध को हुई होगी। हैं। इसलिए सुख-दुख के बीच जो भेद है, वह कम हो जाता है, बुद्ध से कोई पूछता है, जब उनको ज्ञान हो गया, कि आपको | | गिर जाता है। सुख और दुख में उसका कोई चुनाव नहीं रह जाता। क्या मिला? तो बुद्ध कहते हैं, मिला कुछ भी नहीं। इतना ही पता | समान का अर्थ है, कोई चुनाव नहीं रह जाता। दुख आता है, तो चला कि कभी खोया ही नहीं था। स्वीकार कर लेता है। सुख आता है, तो स्वीकार कर लेता है। दुख नसरुद्दीन कहता है, चांद को निकाल लिया; मुक्त कर दिया | | आता है, तो पागल नहीं होता। सुख आता है, तो भी पागल नहीं आकाश में। बुद्ध कहते हैं, कुछ भी मिला नहीं, क्योंकि कभी खोया | | होता। न उसे सुख उद्विग्न करता है, न दुख उद्विग्न करता है। जैसे नहीं था। और जो मैंने जाना है, वह सदा से मेरे भीतर था। सिर्फ | सुबह आती है, सांझ आती है; ऐसे सुख आते-जाते रहते हैं, दुख मेरी नजरें बाहर भटक रही थीं, इसलिए उसे मैं पहचान नहीं पा रहा | आते-जाते रहते हैं। वह दूर खड़ा, अछूता, अस्पर्शित बना रहता है। था। अगर तुम पूछते ही हो, तो मैंने कुछ खोया जरूर है, अज्ञान | आत्म-भाव में स्थित हुआ, दुख-सुख को समान समझने वाला खोया है। लेकिन पाया कुछ भी नहीं है। क्योंकि ज्ञान तो सदा से ही | | है। मिट्टी, पत्थर और स्वर्ण में समान भाव वाला है। धैर्यवान है। था। वह मेरा स्वभाव है। तथा जो प्रिय और अप्रिय को बराबर समझता है। निंदा-स्तुति में . आत्म-भाव में स्थित हुआ, दुख-सुख को समान समझने समान भाव वाला है। वाला...। सभी द्वंद्व जिसके लिए समान हो गए हैं। चाहे प्रेम के, अप्रेम जो भी आत्म-भाव में स्थित होगा, उसे दुख-सुख समान हो | के; चाहे स्वर्ण के, मिट्टी के; चाहे मित्र के, शत्रु के; स्तुति के, निंदा जाएंगे; समता उसकी छाया हो जाएगी। के; जिसके लिए सभी भाव समान हो गए हैं। जो विपरीत को हमें दख और सख अलग-अलग क्यों मालम पड़ते हैं? विपरीत की तरह नहीं देखता। जो पहचान लिया है कि सुख दुख इसलिए अलग-अलग मालूम पड़ते हैं कि जो हम पाना चाहते हैं, | का ही छोर है; और जो समझ लिया है कि स्तुति में निंदा छिपी है। वह हमें सुख मालूम पड़ता है। और जिससे हम बचना चाहते हैं, | आज स्तुति है, कल निंदा होगी। आज निंदा है, कल स्तुति हो वह दुख मालूम पड़ता है। हालांकि हमारे सुख दुख हो जाते हैं और | | जाएगी। मित्रता और शत्रुता के बीच जिसको फासला नहीं दिखाई दुख सुख हो जाते हैं, फिर भी हमें बोध नहीं आता। जिस चीज को पड़ता; जिसे दोनों एक ही चीज की डिग्रीज मालूम पड़ती हैं। आप आज पाना चाहते हैं, सुख मालूम पड़ती है। और कल पा लेने। यह उसी को होगा, जो आत्म-भाव में स्थित हुआ है। उसे यह के बाद छूटना चाहते हैं और दुख मालूम पड़ती है। | द्वंद्व साफ दिखाई पड़ने लगेगा, द्वंद्व नहीं है। यह मेरे ही चुनाव के मुल्ला नसरुद्दीन एक चर्च के पास से गुजर रहा है। उसकी पत्नी | कारण द्वंद्व पैदा हुआ है। 145
SR No.002410
Book TitleGita Darshan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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