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________________ * आत्म-भाव और समत्व * बना ही रहता है। | कहते हैं, यह मैं हूं! कितना सुंदर हूं! कितना स्वस्थ हूं! अब आप जाग भी जाते हैं, होश से भी भर जाते हैं, तो भी गुणों __ आपके शरीर में जो प्रकृति काम कर रही है, वह जड़ है, लेकिन की पुरानी रेखाएं चारों तरफ बनी रहती हैं। और उनमें पुरानी गति | दर्पण की तरह है। उसमें आप अपना प्रतिबिंब पकड़ते हैं। और का वेग है, वे चलती रहती हैं। फर्क यह पड़ जाता है कि अब आप | दर्पण में तो आपको पता चलता है कि प्रतिबिंब है, लेकिन अगर उनको नया वेग नहीं देते। यह क्रांतिकारी मामला है। यह छोटी | दर्पण सदा ही आपके साथ जुड़ा रहे; उठे, बैठे, कुछ भी करें, दर्पण घटना नहीं है। साथ ही हो; सोएं, कहीं भी जाएं, दर्पण साथ ही हो; तो आपको आप उनको नया वेग नहीं देते। आप उनमें नया रस नहीं लेते। | यह भूल जाएगा कि दर्पण में जो दिखाई पड़ रहा है, वह मेरा अब वे चलती भी हैं, तो अपने अतीत के कारण। और अतीत की | | प्रतिबिंब है। आपको लगने लगेगा, वह मैं हूं। शक्ति की सीमा है। अगर आप रोज वेग न दें, तो आज नहीं कल | __ यही घटना घट रही है। आप अपने प्रकृति के गुणों में अपने पुरानी शक्ति चुक जाएगी। अगर आप रोज शक्ति न दें...। | प्रतिबिंब को पा रहे हैं। और प्रतिबिंब को सदा पा रहे हैं। एक क्षण __ आप पेट्रोल भरकर गाड़ी को चला रहे हैं। जितना पेट्रोल भरा को भी वह प्रतिबिंब हटता नहीं वहां से। निरंतर उस प्रतिबिंब को पाने है, उतना चक जाएगा और गाड़ी रुक जाएगी। रोज पेट्रोल डालते के कारण एक भी क्षण उसका अभाव नहीं होता। इस सतत चोट के चले जाते हैं, तो फिर चुकने का कोई अंत नहीं आता। आपने तय | कारण यह भाव निर्मित होता है कि यह मैं हूं। यह भाव इसलिए हो भी कर लिया कि अब पेट्रोल नहीं डालेंगे, तो पुराना पेट्रोल थोड़ी | पाता है कि चेतना समर्थ है सत्य को जानने में। चेतना चूंकि समर्थ दूर काम देगा; सौ-पचास मील आप चल सकते हैं। | है सत्य को जानने में, इसलिए चेतना समर्थ है भ्रांत होने में। बुद्ध को चालीस वर्ष में ज्ञान हो गया, लेकिन जन्मों-जन्मों में | हमारे सभी सामर्थ्य दोहरे होते हैं। आप जिंदा हैं, क्योंकि आप जो ईंधन इकट्ठा किया है, वह चालीस वर्ष तक शरीर को और चला | मरने में समर्थ हैं। आप स्वस्थ हैं, क्योंकि आप बीमार होने में समर्थ गया। उस चालीस वर्ष में शरीर अपने गुणों में बर्तेगा, बुद्ध सिर्फ हैं। आपसे ठीक हो सकता है, क्योंकि आप गलत करने में समर्थ देखने वाले हैं। | हैं। इसे ठीक से समझ लें। ---- द्रष्टा और भोक्ता, द्रष्टा और कर्ता, इसके भेद को खयाल में ले | __ हमारी सारी सामर्थ्य दोहरी है। अगर विपरीत हम न कर सकते लें, तो अड़चन नहीं रह जाएगी। अगर आप कर्ता हो जाते हैं, | | हों, तो सामर्थ्य है ही नहीं। जैसे किसी आदमी को हम कहें कि तुम भोक्ता हो जाते हैं, तो आप नया वेग दे रहे हैं। आपने ईंधन डालना ठीक करने के हकदार हो, लेकिन गलत करने की तुम्हें स्वतंत्रता शुरू कर दिया। अगर आप सिर्फ द्रष्टा रहते हैं, तो नया वेग नहीं नहीं है। तुम्हें सिर्फ ठीक करने की स्वतंत्रता है। तो स्वतंत्रता समाप्त दे रहे हैं। पुराने वेग की सीमा है, वह कट जाएगी। और जिस दिन हो गई। स्वतंत्रता का अर्थ ही यह है कि गलत करने की भी स्वतंत्रता पुराना वेग चुक जाएगा, शरीर गिर जाएगा; गुण वापस प्रकृति में है। तभी ठीक करने की स्वतंत्रता का कोई अर्थ है। मिल जाएंगे, और आप सच्चिदानंदघनरूप परमात्मा में। चेतना स्वतंत्र है। स्वतंत्रता चेतना का गुण है। वह उसका | स्वभाव है। स्वतंत्रता का अर्थ है कि दोनों तरफ जाने का उपाय है। मैं भ्रांति भी कर सकता हूं। मैं गलत भी कर सकता हूं। और गलत दूसरा प्रश्नः जड़ त्रिगुणों से चैतन्य साक्षी का तादात्म्य | कर सकता हूं, इसीलिए ठीक को खोजने की सुविधा है। कैसे संभव हो पाता है, यह समझ में नहीं आता! | ये दो उपाय हैं, या तो मैं अपने को जान लूं, जो मैं हूं; यह सत्य का जानना होगा। और या मैं अपने को उससे जोड़ लूं, जो मैं नहीं हं: यह असत्य के साथ एक हो जाने का मार्ग होगा। ये दोनों मार्ग = र्पण में आप अपना चेहरा देखते हैं। दर्पण जड़ है, | खुले हैं। १ लेकिन आपके चेहरे का प्रतिबिंब बनाता है। चेहरा | ___ सभी का मन होता है कि यह स्वतंत्रता खतरनाक है। यह न देखकर आप खुश होते हैं और आप कहते हैं, यह मैं | | होती, तो अच्छा था। लेकिन आपको पता नहीं कि आप क्या सोच हूं। वह जो दर्पण में आपको दिखाई पड़ रहा है, उसे देखकर आप रहे हैं। आपको पता नहीं है, आप क्या मांग रहे हैं। 137
SR No.002410
Book TitleGita Darshan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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