SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 137
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ * असंग साक्षी * बिना किसी को पकड़ने के लिए। सिर्फ मुट्ठी को खुला छोड़ देना है। ___ अर्जुन को कृष्ण कह रहे हैं, तू रजस की साधना कर। क्योंकि साधु-संत लोगों को समझाते हैं तथाकथित साधु-संत—कि कृष्ण जानते हैं भलीभांति कि अर्जुन का गुण है क्षत्रिय का। वह तुम यहां छोड़ो, तो परलोक में पाओगे। उनकी बातें सुनकर अगर रजस उसका स्वभाव है, वह उसकी प्रमुखता है। और जीवनभर कोई यहां छोड़ दे, तो वह छोड़ नहीं रहा है। वह सिर्फ परलोक में उसने रजस को साधा है, आलस्य को दबाया है। सत्व को दबाया पकड़ रहा है। उसका वैराग्य झूठा है, ओढ़ा हुआ है। राग ही काम | | है, रजस को उभारा है। क्योंकि क्षत्रिय अगर सत्व को उभारे, तो कर रहा है। और वह मन ही मन में बड़ा प्रसन्न हो रहा है कि मैंने यहां | | क्षत्रिय न हो सकेगा, ब्राह्मण हो जाएगा। अगर ब्राह्मण रजस को धन दिया, तो हजार गुना परलोक में मुझे मिलेगा। वह सौदा कर रहा उभारे, तो नाम का ही ब्राह्मण रह जाएगा, क्षत्रिय हो जाएगा। है, त्याग नहीं कर रहा। वह इनवेस्टमेंट कर रहा है। वह आगे की | | परशुराम नाम के ब्राह्मण हैं। हाथ में उनके फरसा है। और तैयारी कर रहा है। वह यहीं से आगे के लिए भी धन जोड़ रहा है। क्षत्रियों से, कथा है कि उन्होंने अनेक बार पृथ्वी को खाली कर और साध समझाते हैं कि धन को इकट्ठा करके क्या करोगे? दिया। वह महाक्षत्रिय हैं। इसलिए परशराम में सत्व प्रमुख नहीं हो पुण्य इकट्ठा करो। क्योंकि धन तो छिन जाएगा; पुण्य कभी नहीं | सकता; रजस ही प्रमुख होगा। परशुराम की दोस्ती बुद्ध से नहीं बैठ छिनेगा। लोभी उनकी बातों में आ जाएंगे। क्योंकि लोभी ऐसा ही | | सकती, मोहम्मद से बैठ सकती है। जहां सक्रियता प्रमुख हो, वहां धन खोज रहा है, जो छिन न सके। यह भाषा लोभ की है, त्याग | | रजस ऊपर होगा। की भाषा नहीं है। कृष्ण भलीभांति जानते हैं अर्जुन का सारा व्यक्तित्व, सारा ढांचा सहज वैराग्य का अर्थ है, आपको दिखाई पड़ेगा, धन व्यर्थ है। | रजस का है। इसलिए वे कह रहे हैं, तू भागने की बातें मत कर। आप इसलिए नहीं छोड़ रहे हैं कि इससे कोई बडा धन मिल यह तेरा स्वभाव नहीं है. यह तेरा स्वधर्म नहीं है। त भाग न सकेगा। जाऐगा। आप धन की पकड़ ही छोड़ रहे हैं। आप बड़े को भी नहीं | अगर तू भाग भी गया जंगल में, तो झाड़ के नीचे तू बैठ न सकेगा। चाहते हैं। आप इस संसार को इसलिए नहीं छोड़ रहे हैं कि परलोक | | तू वहीं जंगल में शिकार करना शुरू कर देगा। वहीं कोई झगड़े खड़े मिल जाएगा। आप कुछ पाना ही नहीं चाहते। पाने की बात ही | कर लेगा। तेरे क्षत्रिय होने से तेरा छुटकारा इतना आसान नहीं है। मूढ़तापूर्ण समझ में आ गई। यह बोध हो गया कि पाने की आकांक्षा | | जो तेरा व्यक्तित्व है, उसी गुण की साधना में तू उतर, यही कृष्ण में ही दुख है, फिर वह पाना यहां हो कि परलोक में हो। अब आप का पूरा संदेश है। कुछ पाना नहीं चाह रहे। आप अब जो हैं, वही होने में प्रसन्न हैं, । इसलिए वे कह रहे हैं, तू लड़। लेकिन एक शर्त, कि तू लड़ तो वैराग्य। जरूर, युद्ध जरूर कर, लेकिन योद्धा अपने को मत समझ, कर्ता वैराग्य का मतलब है, मैं जहां हैं, जैसा हं, जो है, उसकी अपने को मत समझ। समझ कि तू परमात्मा के हाथ एक निमित्त, स्वीकृति। उससे कोई असंतोष नहीं। राग का अर्थ है, जो भी मैं हूं, | एक उपकरण, एक साधन है। उससे असंतुष्ट हूं। और कुछ और हो जाऊं, तो मेरा संतोष हो चाहे साधना सत्व की हो, चाहे कोई सदगुणों को जीवन में सकता है। | उतारने में लगा हो; सत्य को, करुणा को, अहिंसा को साध रहा राग का संतोष है भविष्य में, वैराग्य का संतोष है अभी और | | हो; सब भांति अपने आचरण को पवित्र कर रहा हो, शुचि कर रहा यहीं। इसलिए वैराग्य सदा सहज होगा, एक। | हो. शद्ध कर रहा हो. वहां भी कर्ता-भाव पकड सकता है। वहां साधना कोई भी हो, वैराग्य सदा फल होगा। साधना चाहे तमस | | भी यह हो सकता है कि देखो, मेरे जैसा साधु कोई भी नहीं है! कि की हो, चाहे रजस की, चाहे सत्व की, फल सदा वैराग्य होगा। | मेरी जैसी पवित्रता कहां है! साधना का फल वैराग्य है। ध्यान का फल वैराग्य है। ज्ञान का फल | तो भूल हो गई। तो यह सत्वगुण जंजीर बन जाएगा। वहां भी वैराग्य है। जानना है कि यह जो भलापन हो रहा है, यह भी मेरे भीतर जो अगर आप दौड़ रहे हैं, कर्म कर रहे हैं...जैसा कि कृष्ण अर्जुन । प्रकृति ने सत्व का गुण रखा है, उसका परिणमन है, उसका परिणाम को कह रहे हैं कि तू कर्म कर, डर मत। लेकिन कर्म करने में भोक्ता है। मैं तो सिर्फ देखने वाला हूं। मैं देख रहा हूं कि मेरा सत्व सक्रिय मत रह, कर्ता मत रह, साक्षी हो जा। हो रहा है, मेरे भीतर से करुणा बह रही है, अहिंसा बह रही है। मैं 109
SR No.002410
Book TitleGita Darshan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy