SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 7
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भूमिका ओशो के प्रति संसार की समस्त भाषाओं में जो साहित्य रचा गया, निश्चय ही वह जीवन के किसी न किसी बिंदु से जुड़ा होगा। मनुष्य ऐसा प्राणी है जो स्वभावतः समस्त जीव-जंतुओं पर, प्रकृति पर राज करना चाहता है और इस हेतु ही उसके क्रिया-कलाप होते रहते हैं। धर्म-अधर्म, पाप-पुण्य, अच्छाई-बुराई के पैमाने बना कर इसने अपने लिए घेरे खींच लिए। इन्हीं घेरों में एक क्रम से वह आता रहता है, जाता रहता है। आने-जाने के रहस्य को समझने-समझाने का प्रयास अनेक ऋषियों, मुनियों, कवियों, लेखकों, विचारकों, दार्शनिकों ने किया। इस संदर्भ में भारतीय वाङ्मय बहुत समृद्ध है। हमारे अनेक ग्रंथ बहुत समय से संपूर्ण विश्व को आकर्षित करते रहे हैं। ___ यदि देखा जाए तो ओशो स्वच्छ-निर्मल जल का बहता हुआ आईना हैं। जिसके निकट जाते ही आदमी को अपना अक्स दिखाई पड़ने लगता है। भीतर गहरे में हलचल पैदा होने लगती है।...आदमी सब जगह से तो भाग सकता है, अपने आप से नहीं। जो लोग ओशो के निकट आने में घबराते हैं उनकी घबराहट का यह अर्थ कत्तई नहीं होता कि ओशो-साहित्य पठन और मनन योग्य नहीं है। बल्कि परोक्ष में वे इस बात पर मोहर ठोंकते हैं कि ओशो एक महान क्रांतिकारी-विचारक, चिंतक और व्याख्याता हैं। मनुष्य ने ही अपने बीच देवताओं की कक्षा का नियमन भी किया। निर्धारित (पारंपरिक) मापदंडों / मान्यताओं से आग्रहमक्त होकर मेरे लिए ओशो एक मनुष्य होते हए भी अलौकिकता के ऐसे प्रतिबिंब हैं जो मनुष्य को देवताओं की कोटि में बिठाती है। ___ सब जानते हैं कि कृष्ण महाभारत-युद्ध में अर्जुन के सारथी बने और युद्ध-क्षेत्र में गीता का उपदेश दिया। अर्जुन जिस रथ पर सवार थे उसे कृष्ण संचालित कर रहे थे। अर्जुन को अपनों से ही युद्ध करना था। अपनों के प्रति मोहग्रस्त होने से अर्जुन जब द्वंद्व की स्थिति में आ जाते हैं तो कृष्ण गीता का उपदेश देकर उनके मोह के बंधन काटते हैं, ज्ञान-दृष्टि देते हैं। गीता का यह संक्षिप्त संदर्भ है।...अर्जुन का अपनों के प्रति अस्त्र न चलाना, संसार में लिप्त हुए मनुष्य की प्रकृति है। अपनों से लड़ना, मतलब स्वयं से लड़ना, साधारण बात नहीं है। आदमी यहीं पलायन करता है और इस जगह ही उसे आत्म-प्रेरणा की, ऊर्जा की, ज्ञान की आवश्यकता होती है। सामान्यतः गीता को 'निष्काम कर्मयोग' का ग्रंथ बता कर इसकी मीमांसा की जाती है। इसके समस्त अध्याय महत्वपूर्ण हैं और मननोपरांत अनुपालन योग्य हैं किंतु षष्ठ और सप्तम अध्याय इसलिए केंद्र-बिंदु कहे जा सकते हैं क्योंकि इनमें 'आत्म-संन्यास योग' एवं 'ज्ञान-विज्ञान योग' की चर्चा है। गीता में श्लोक संस्कृत में हैं, दूसरे यह काव्य है, इसलिए इसमें छिपा गूढ़ रहस्य, मर्म तब तक प्रकट नहीं होता जब तक कि कोई तत्व-ज्ञानी एक-एक शब्द की विस्तृत विवेचना कर के उसे उद्घाटित न करे। इस पक्ष में ओशो के प्रवचन अद्वितीय हैं। आज, बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में, भाषा के जिस लालित्य और गांभीर्य की जरूरत है ओशो के पास वह सहज रूप में विद्यमान है। हमारे वाङ्मय में ज्ञान सूत्रों में, श्लोकों में, मंत्रों में है। उसमें निहित अर्थ को उद्घाटित करने, संप्रेषित करने में ओशो असमानांतर दिखाई पड़ते हैं। गीता में कृष्ण का शिष्य अर्जुन!...तो कृष्ण, अर्जुन की पात्रता के अनुरूप ही बोलते हैं। ओशो आज बोल रहे हैं—आज की भाषा में ही मर्म तक हमें ले जाते हैं। ___ जिन्हें कुछ कहना है उन्हें रोकने का कोई औचित्य नहीं, वे कह सकते हैं, ओशो का मौलिक कुछ नहीं है। तो ओशो ऐसा कोई दावा भी तो नहीं करते जैसा कि 'मौलिक' का अर्थ रूढ़ होकर आज ग्रहण किया जा रहा है। वे तो कहते हैं—मौलिक वह जो मूल से जुड़ा हो। यह ओशो-साहित्य पर टिप्पणी करने वालों को समझने के लिए है कि संपूर्ण सृष्टि का मूल तो एक ही है और उसे ही सब धर्मों में परम प्राप्तव्य बताया गया है। समस्त भाषाओं में ब्रह्म के स्वरूप-निरूपण की विधियां, रास्ते अलग हो सकते हैं, ब्रह्म नहीं। जो विधान दिए
SR No.002406
Book TitleGita Darshan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages488
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy