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________________ <आसक्ति का सम्मोहन - असंभव है। फिर क्रोध के पलड़े पर ही बैठे रह जाएंगे; फिर दूसरे इसलिए जो आदमी क्रोध कर सके, वह क्रोध में ही ठहर जाए। पलड़े पर जाना तराजू के बहुत मुश्किल है। और मन एक ही पलड़े बुरा है क्रोध बहुत। ठहर नहीं सकेंगे, हटना पड़ेगा। रुक न सकेंगे, पर बैठा नहीं रह सकता; बहुत घबड़ा जाएगा, बहुत परेशान हो | उतरना ही पड़ेगा। लेकिन जल्दी न करें दूसरी अति पर जाने की। जाएगा। और अगर आपने इतना ही तय कर लिया कि मैं | तो फिर एक ही विकल्प रह जाएगा अपने आप, आपको मध्य में पछताऊंगा नहीं, तो मन के लिए एक ही उपाय है कि वह मध्य में | जाने के अलावा कहीं जाने की गति न रह जाएगी। चला जाए, जहां कोई पलड़ा नहीं है। ___ जो भी चित्त का रोग है, उसी रोग में ठहर जाएं। भागें मत; जल्दी लेकिन मन धोखा देता है। मन कहता है, क्रोध किया है, | | न करें। विपरीत रोग को न पकड़ें; वहीं ठहर जाएं। मन के ठहरने पछताओ। और मन यह भी समझाता है, और न मालूम कितने लोग | | का नियम नहीं है; वह तो जाएगा। आप उसको द्वंद्व में भर न जाने समझाते रहते हैं—साधु हैं, संन्यासी हैं—सारे मुल्क में समझाते | दें, तो वह मध्य में चला जाएगा। इसे प्रयोग करें और आप हैरान रहते हैं, बिलकुल अवैज्ञानिक बात। वे कहते हैं, क्रोध किया है, तो | हो जाएंगे। पश्चात्ताप करो। पश्चात्ताप से, वे कहेंगे कि तुम्हारा क्रोध मिट लेकिन जैसे ही क्रोध हुआ कि मन दूसरा कदम उठाकर जाएगा। कभी किसी का नहीं मिटा। वे कहते हैं, क्रोध किया, तो पश्चात्ताप के पलड़े में रखना शुरू कर देता है। आदमी का आधा पश्चात्ताप करो; पश्चात्ताप से क्रोध मिट जाएगा। क्रोध नहीं हिस्सा क्रोध करता है, आधा हिस्सा पश्चात्ताप की तैयारी करने मिटेगा, सिर्फ क्रोध को पुनः करने की सामर्थ्य पैदा हो जाएगी। | लगता है। क्रोध करते हुए आदमी को देखें। उसके चेहरे पर खयाल करके देखें और आप पाएंगे कि पुनः आप समर्थ हो गए। रखें, तो आप फौरन उसके चेहरे पर धूप-छाया पाएंगे। वह क्रोध क्रोध से जो थोड़ा-सा दंश पैदा हुआ था, पीड़ा आई थी, वह भी कर रहा है, सकुचा भी रहा है; तैयारी भी कर रहा है कि फिर मिट गई। क्रोध से जो अहंकार को थोड़ी-सी चोट लगी थी कि पश्चात्ताप कर ले। अभी हाथ मारने को उठाया था; थोड़ी देर में मैं कैसा बुरा आदमी हूं, वह फिर मिट गई। पश्चात्ताप से फिर लगा हाथ जोड़कर माफी मांग लेगा। निपटा दिया। वह मन के द्वंद्व में पूरा कि मैं तो अच्छा आदमी हूं। पश्चात्ताप करके आप पुनः उसी स्थिति एक कोने से दूसरे कोने में चला गया। इस मन की द्वंद्वात्मकता को, में आ गए, जैसा क्रोध करने के पहले थे। आपने स्टेटस को, | | डायलेक्टिक्स को समझ लेना जरूरी है। पुनः-पुनः पुरानी स्थिति में अपने को स्थापित कर लिया। अब आप मार्क्स ने तो कहा है कि समाज डायलेक्टिकल है, द्वंद्वात्मक है। फिर क्रोध कर सकते हैं। अब आप बुरे आदमी नहीं हैं। अब आप | समाज द्वंद्व से जीता है। लेकिन ऐसा दिन तो कभी आ सकता है, क्रोध कर सकते हैं। जब समाज द्वंद्व से न जीए। मार्क्स के खुद के खयाल से भी अगर द्वंद्व! और जो मैंने क्रोध के लिए कहा, वही मन की सभी वृत्तियों कभी साम्यवाद दुनिया में आ जाए, तो कोई द्वंद्व नहीं रह जाएगा। के लिए लागू है। सभी वृत्तियों के लिए लागू है। कृष्ण कहते हैं, फिर नान-डुअलिस्टिक हो जाएगा समाज। नान-डायलेक्टिकल हो बीच में है योग। ये दोनों ही अयोग हैं—क्रोध भी, पश्चात्ताप भी; । जाएगा; द्वंद्व नहीं होगा। लेकिन मन कभी भी, किसी स्थिति में भी प्रेम भी, घृणा भी। बीच में है योग; वहीं है, जहां संतुलन है। गैर-द्वंद्वात्मक नहीं हो सकता। द्वंद्व रहेगा। हां, मन ही न रह क्या करें? संतुलन में कैसे ठहर जाएं ? कहां रुकें? जाए-उसके सूत्र कृष्ण कह रहे हैं-वह बात दूसरी है। मन जब भी एक पलड़े से दूसरे पलड़े पर जाने की तैयारी हो रही हो, | | रहेगा, तो द्वंद्व रहेगा। मन ही न रह जाए, तो द्वंद्वहीनता आ जाएगी। तब दूसरे पलड़े पर न जाएं। जल्दी न करें। दूसरे पलड़े पर न जाएं। इसलिए कृष्ण के सूत्र को अगर कोई ठीक से समझे, तो मार्क्स अगर क्रोध है, तो क्रोध में ही ठहर जाएं; पश्चात्ताप पर जल्दी न | का साम्यवाद दुनिया में तब तक नहीं आ सकता, जब तक कि करें जाने की। क्रोध में ही ठहर जाएं। | दुनिया में बड़े पैमाने पर ऐसे लोग न हों, जिनके पास मन न रह ठहर न सकेंगे। मन का नियम नहीं है ठहरने का। अगर | जाए। नहीं तो द्वंद्व जारी रहेगा। द्वंद्व बच नहीं सकता। पश्चात्ताप पर जाने से आपने रोक लिया, तो भी मन जाएगा। समाज में जो द्वंद्व दिखाई पड़ते हैं, वे व्यक्ति के ही मन के द्वंद्वों लेकिन जाने का, तीसरा एक ही उपाय है कि वह पलड़े के बाहर का विस्तार है। जब तक भीतर मन द्वंद्वात्मक है, डायलेक्टिकल है, चला जाए। | तब तक हम कोई ऐसा समाज निर्मित नहीं कर सकते, जिसमें द्वंद्व
SR No.002406
Book TitleGita Darshan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages488
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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