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________________ गीता दर्शन भाग-3 > सीमा बड़ी हो गई। और कभी लगेगा, शरीर चींटी जैसा हो गया, सीमा बड़ी छोटी हो गई । घबड़ा मत जाना, क्योंकि बहुत घबड़ाहट का अनुभव होता है। जब पहलीं दफा सीमा का भाव टूटता है, तो फ्लक्चुएशन होता है। कभी लगता है, बहुत बड़ा हो गया; कभी लगता है, बिलकुल छोटा हो गया। अगर आप पीछे पड़े ही रहे, तो एक महीना पूरा होते-होते अचानक कभी-कभी ऐसे क्षण आ जाएंगे, जब लगेगा कि शरीर है ही नहीं—न छोटा, न बड़ा। और तब आपको पहली दफा पता चलेगा कि मेरी कोई सीमा नहीं। मैं हूं, और सीमा कोई भी नहीं है। अपने ही भीतर अगर तीन महीने इस प्रयोग को करें, तो आप असीम की और निराकार की छोटी-सी झलक को पा लेंगे। और जिस दिन आप अपने भीतर जान लेंगे, उस दिन आप दूसरे के भीतर भी जान लेंगे। क्योंकि हम दूसरे के भीतर जो भी जानते हैं, वह अनुमान है, इनफरेंस है। ज्ञान तो अपने भीतर होता है, दूसरे की तरफ तो अनुमान होता है। आपको पता है कि जब आप क्रोध में होते हैं, तो आंखें लाल हो जाती हैं, मुट्ठी भिंच जाती है। तो दूसरा आदमी अगर क्रोध में न भी हो — जैसा कि फिल्म का एक्टर या नाटक का पात्र क्रोध में नहीं होता — आंखें लाल कर लेता है, मुट्ठी भींच लेता है; आप समझ जाते हैं कि यह क्रोध में है। भीतर क्रोध बिलकुल नहीं होता। क्योंकि आपको पता है कि जब आप मुट्ठी बांधते हैं और आंखें मींचते हैं, और दांत दबाते हैं, और लहू उतर आता है, चेहरा लाल हो जाता है, तब आप जानते हैं कि आप क्रोध में हैं। फिल्म का अभिनेता या नाटक का पात्र वही करके दिखला रहा है; आप समझ जाते हैं कि वह क्रोध में है। क्रोध आपका अनुमान है। वह है नहीं क्रोध में। लेकिन जो-जो घटना क्रोध में घटती है, वह घट रही है; आप अनुमान कर लेते हैं। दूसरे के बाबत हम अनुमान करते हैं। ज्ञान तो अपने ही बाबत होता है। अपने भीतर निराकार की थोड़ी-सी खोज हो...। कई तरह से हो सकती है। जैसे मैंने कहा कि शरीर की सीमा का चिंतन करें, मनन करें, मेडिटेट आन इट; ध्यान करें। तीन महीने में आपकी सीमा खो जाएगी और आपके असीम का अनुभव हो जाएगा। अगर इसमें कठिनाई मालूम पड़े, तो शरीर की उम्र, अपनी उम्र का भीतर अनुभव करें कि मेरी उम्र कितनी है ? तो अभी आज आप बैठेंगे, तो पता लगेगा कि चालीस साल है, तो चालीस साल | है | लेकिन यह असली पता नहीं है। यह तो सिर्फ आदत है रोज की कि आप चालीस साल के हैं। पंद्रह दिन बैठकर देखने पर आप | डांवाडोल होने लगेंगे। कभी लगेगा कि छोटा बच्चा हो गया, और कभी लगेगा कि बिलकुल बूढ़ा हो गया, यह फ्लक्चुएशन शुरू हो जाएगा। एक महीना पूरा होते-होते आपके भीतर यह सफाई हो जाएगी किन मैं बच्चा हूं, न मैं बूढ़ा हूं, न मैं जवान हूं। तीन महीने प्रयोग करने पर आप पाएंगे कि आप अजन्मा हैं; आपका कभी कोई जन्म नहीं हुआ। और आप अमृत हैं; आपकी कोई मृत्यु नहीं हो सकती। कहीं से भी शुरू करें, किसी भी आकार से शुरू करें, और धीरे-धीरे आप निराकार में उतर जाएंगे। ध्यान का अर्थ है, आकार से निराकार की तरफ यात्रा । कृष्ण वही कह रहे हैं। ज्ञान का अर्थ है, आकार से निराकार की तरफ यात्रा । बुद्धिहीन है, वह आकार में अटक जाता है। जो बुद्धिमान है, वह निराकार में डुबकी लगा लेता है। और एक बार निराकार की झलक मिल जाए, तो इस जगत में सब आकार मिट जाते हैं और निराकार ही रह जाता है । और जहां निराकार है, वहां आनंद है। इसलिए कृष्ण कहते हैं, वह मेरा सच्चिदानंद स्वरूप है, वहां सत, चित, आनंद, तीनों का वास है। लेकिन निराकार में है। आकार में अगर खोजने जाएंगे, तो आकार में सत नहीं मिलेगा, मिलेगा असत। सत का अर्थ होता है, एक्झिस्टेंस, अस्तित्व असत का अर्थ होता है, आभास दिखता है, और नहीं है। अगर आकार में खोजने जाएंगे, तो चित नहीं मिलेगा । चित का अर्थ होता है, कांशसनेस, चैतन्य । आकार में खोजने जाएंगे, तो जड़ मिलेगा, चैतन्य नहीं मिलेगा। और तीसरा तत्व है, आनंद । आकार में खोजने जाएंगे, तो सुख मिलेगा, दुख मिलेगा, आनंद नहीं मिलेगा। आनंद तो निराकार में मिलेगा। इसलिए कृष्ण कहते हैं, मेरे सच्चिदानंद स्वरूप को वे बुद्धिमान जान पाते हैं, जो मेरे आकार और आकृति में नहीं उलझ जाते । जो पेनिट्रेट कर जाते हैं, जो पार चले जाते हैं, गहरे उतर जाते हैं और | निराकार को खोज लेते हैं। यह निराकार हमारे चारों तरफ सब तरह से मौजूद है; यहीं मौजूद है। लेकिन हम सबको आकार दिखाई पड़ते हैं। हमारी सिर्फ आदत | है देखने की। 440
SR No.002406
Book TitleGita Darshan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages488
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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