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________________ गीता दर्शन भाग-31 धूप अपने बुद्ध के लिए, पहुंच जाएगी न मालूम किन के बुद्धों के का मैं नहीं है। यह मैं कृष्ण का मैं नहीं है। कृष्ण का प्रयोग किया लिए! तो उसने एक बांस की पोंगरी बनाई। धूप जलाई और बांस जा रहा है, केवल एक वीहिकल, एक साधन की भांति। और जब की पोंगरी से धूप के धुएं को अपने बुद्ध की नाक तक पहुंचाया। भी कृष्ण बोलते हैं, तो परमात्मा बोलता है। स्वभावतः जो होना था, वह हो गया। बुद्ध का मुंह काला हो इसलिए बहुत बार भूल हो जाती है। कृष्ण की गीता पढ़ते वक्त गया। सभी भक्त अपने भगवानों का मुंह काला करवा देते हैं! बुद्ध | बहुत लोगों को ऐसी कठिनाई होती है कि कृष्ण भी कैसे अहंकारी का मुंह काला हो गया। बहुत बेचैन हुई, बहुत घबड़ाई। भीड़ इकट्ठी | आदमी रहे होंगे! अर्जुन से कहते हैं, जो मुझे अनन्य भाव से प्रेम हो गई। रोने लगी। लोगों ने कहा, पागल तूने यह क्या किया है? करेगा। मुझे! अर्जुन से कहते हैं, जो सब छोड़कर मेरी शरण में आ उसने कहा, यह सोचकर कि मेरे जलाए हुए धूप की सुगंध मेरे बुद्ध जाएगा। मेरी शरण में। कहते हैं अर्जुन से, मुझ वासुदेव को जो सब तक ही पहुंचे। उस भीड़ में खड़ा था एक भिक्षु, वह हंसने लगा। | भांति समर्पित है। मुझ वासुदेव को! उसने कहा कि तब, जहां भी अहंकार है, वहां यह होगा ही। जो भी पढ़ते हैं, दो तरह की भूलें होती हैं। अगर वे कृष्ण के प्रति यह भक्ति नहीं है, यह वही राग है। वही राग जो हम जिंदगी में | रागयुक्त हैं, तो वे समझते हैं कि कृष्ण, वासुदेव नाम के जो व्यक्ति बसाते हैं और एक-दूसरे का मुंह काला कर देते हैं। कलह और | हैं, उनके प्रति समर्पण करना है। यह भी भूल है, राग की भूल है। ईर्ष्या और हिंसा और दुख और पीड़ा, वही पूरा नर्क वहां भी मौजूद | जो कृष्ण के प्रति रागयुक्त नहीं हैं, उन्हें लगता है, कृष्ण भी कैसे हो गया। अहंकारी हैं; कहते हैं, मेरी शरण में आ जाओ! पर दोनों की भूल अनन्य भाव का अर्थ है. न भक्त बचे. न भगवान बचे. भक्ति एक ही है। दोनों मान लेते हैं कि कृष्ण का मैं अहंकार का सूचक ही बच जाए। न प्रेमी बचे, न प्रेमपात्र बचे, प्रेम ही बच जाए। | और प्रतीक है। और जिस दिन ऐसी घटना घटती है और घटती है, और किसी | | जिसने भी कृष्ण के मैं को ठीक से न समझा, वह पूरी गीता को के भी जीवन में कभी भी घट सकती है, सिर्फ अपने को मिटाने की | | ही समझने में असफल हो जाएगा। इस एक छोटे-से शब्द पर गीता तैयारी चाहिए तो जिस दिन ऐसी घटना घटती है, उस दिन फिर | का पूरा सार, पूरी कुंजी निर्भर करती है। अगर आप कृष्ण के मैं को ऐसा नहीं होता कि यह रहा भगवान। उस दिन फिर ऐसा होता है कि न समझ पाए, तो पूरी गीता को ही आप न समझ पाएंगे। क्योंकि हीं, जहां भगवान नहीं। फिर ऐसा कोई चेहरा नहीं, गीता कृष्ण के द्वारा कही गई है, कृष्ण से नहीं कही गई है। गीता जो भगवान का चेहरा नहीं। फिर ऐसा कोई पत्थर नहीं, जो उसकी कृष्ण से प्रकट हुई है, कृष्ण गीता के रचयिता नहीं हैं। गीता कृष्ण प्रतिमा नहीं। और ऐसा कोई फूल नहीं, जो उसका नैवेद्य नहीं। फिर से बही है, लेकिन कृष्ण गीता के स्रोत नहीं हैं; स्रोत तो परम ऊर्जा सभी कुछ उसका है। फिर उसके अलावा कोई और नहीं है। है, परम शक्ति है। स्रोत तो भगवान है। कृष्ण कहते हैं, अनन्य भाव से जो मुझे प्रेम करे। | इसलिए कृष्ण को अगर गीताकार बार-बार कहता है, और जब भी कृष्ण इस परी चर्चा में प्रयोग करेंगे मझे, तब आप भगवानवाच, भगवान ने ऐसा कहा, तो.थोड़ा सोचकर, समझकर थोड़ा ठीक से समझ लेना। क्योंकि कृष्ण जब भी कहते हैं मुझे, तो कहा है। यह भगवान कहना कृष्ण को, सिर्फ इसी अर्थ में है कि कृष्ण के पास ईगो जैसी, अहंकार जैसी कोई चीज बची नहीं है। कृष्ण ने नहीं कहा, भगवान ने कहा; कृष्ण से कहा है, कृष्ण के इसलिए कृष्ण का मैं अहंकार का सूचक नहीं है। कृष्ण के भीतर मैं | द्वारा कहा है। को रिफर करने वाली वैसी कोई चीज नहीं बची है, जैसी हमारे | भगवान को भी चलना हो, तो हमारे पैरों के अतिरिक्त उसके भीतर है। पास अपने कोई पैर नहीं। और भगवान को भी बोलना हो, तो जब हम कहते हैं मैं, तो हमारी एक सीमा है मैं की। और जब हमारी वाणी के अतिरिक्त उसके पास अपनी कोई वाणी नहीं। और कृष्ण कहते हैं मैं, तो मैं असीम है। फिर यह जो विराट आकाश है, भगवान को भी देखना हो, तो हमारी आंखों के अतिरिक्त उसके यह भी उस मैं में समाया हुआ है। और ये जो फूल खिलते हैं वृक्षों पास देखने की कोई आंख नहीं। के.ये भी उसी मैं में खिलते हैं। और ये जो पक्षी उडते हैं आकाश लेकिन जब किसी आंख से भगवान देखता है. तो वह आंख में ये भी उसी मैं में उडते हैं। यह मैं विराट है। यह मैं किसी व्यक्ति | आदमी की नहीं रह जाती। हां, जो नहीं जानते, उनके लिए तो फिर | 320/
SR No.002406
Book TitleGita Darshan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages488
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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