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________________ श्रद्धावान योगी श्रेष्ठ है एक आदमी सड़क पर खड़े होकर अपने को कोड़े मार रहा है, तो आपको आदर देने का क्या कारण है? अगर मनसविद से पूछेंगे, गहरा जो गया है आदमी के मन में, उससे पूछेंगे, तो वे कहेंगे, इसका कारण है कि आप सैडिस्ट हैं, वह मैसोचिस्ट है। वह अपने को सताने में मजा ले रहा है, और आप दूसरे को सताने में मजा ले रहे हैं। आपने चाहा होता कि किसी को कोड़े मारें; उस तकलीफ से भी आपको बचा दिया। वह खुद ही कोड़े मार रहा है । आप भीड़ लगाकर देख रहे हैं, और चित्त प्रसन्न हो रहा है। आप दुष्ट प्रकृति के हैं, इसलिए आप उसमें रस रहे हैं। अब एक आदमी गोबर खा रहा है। जो दुष्ट प्रकृति के लोग हैं, कहे रहे हैं, महात्मा ! आप बड़ा महान कार्य कर रहे हैं। उनका वश चले, तो दूसरों को भी गोबर खिला दें। ये अपने हाथ से खाने को राजी हैं, तो उसके चरणों में सिर रखकर कह रहे हैं कि तुम बड़े अदभुत आदमी हो। और जब अहंकार को इस तरह तृप्ति दी जाए, तो वह जो स्वयं को दुख देना वाला आदमी है, वह और दुख देने लगता है। फिर यह विशियस सर्किल है; इसका कोई अंत नहीं है। इसलिए कृष्ण कहते हैं, योगी श्रेष्ठ है तपस्वी से। फिर कहते हैं कि शास्त्र को जो जानता है, उससे योगी श्रेष्ठ है। क्योंकि शास्त्र को जानने से सिवाय शब्दों के और क्या मिल सकता है! सत्य तो नहीं मिल सकता; शब्द ही मिल सकते हैं, सिद्धांत मिल सकते हैं, फिलासफी मिल सकती है। और सारे सिद्धांत सिर में घुस जाएंगे और मक्खियों की तरह गूंजने लगेंगे, लेकिन कोई अनुभूति उससे नहीं मिलेगी । हजार शास्त्रों को निचोड़कर कोई पी जाए, तो भी रत्तीभर, बूंदभर अनुभव उससे पैदा नहीं होगा। कृष्ण इतनी हिम्मत की बात कह रहे हैं। वे कह रहे हैं, योगी श्रेष्ठ शास्त्र को जानने वाले से। क्यों? योगी श्रेष्ठ क्यों है? ऐसा योगी भी श्रेष्ठ है, जो शास्त्र को बिलकुल न जानता हो, तो भी श्रेष्ठ है। योग ही श्रेष्ठ है। कबीर बिलकुल नहीं जानता शास्त्र को। अगर कोई उससे पूछे, तो वह कहता है कि कागज में क्या लिखा है, हमें कुछ पता नहीं । हम तो वही जानते हैं, जो आंखन देखी है। आंख से जो देखा है, वही जानते हैं। कागज में क्या लिखा है, वह हमें पता नहीं। हम बेपढ़े-लिखे गंवार हैं। हमें कुछ पता नहीं कि कागज में क्या-क्या लिखा है। तुम्हारे वेद, तुम्हारे शास्त्र, तुम्हारे आगम, तुम्हारे पुराण, तुम सम्हालो। हम तो उसकी खबर देते हैं, जो हमने आंख से देखा है। मैं तो कहता आंखन देखी, कबीर कहते हैं, तू कहता है कागद लेखी। किसी पंडित से कह रहे होंगे, तू कहता है कागज की लिखी हुई, और मैं कहता हूं, आंख की देखी हुई। शास्त्र - ज्ञान में और योगी में यही फर्क है। शास्त्र - ज्ञान का | मतलब है, कागज में जो लिखा है, जान लिया। उसे जान लेने से जानने का भ्रम पैदा होता है, ज्ञान पैदा नहीं होता। ज्ञान तो पैदा होता है, स्वयं के दर्शन से। और दर्शन की विधि योग है। शुद्धतम चेतना शुद्ध होते-होते न्यू डायमेंशंस आफ परसेप्शन, दर्शन के नए आयाम को उपलब्ध होती है, जहां दर्शन होता है, जहां साक्षात्कार होता है, जहां हम देख पाते हैं, जहां हम जान पाते हैं। शास्त्र- ज्ञान प्रमाण बन सकता है, सत्य नहीं। शास्त्र - ज्ञान विटनेस हो सकता है, साक्षी हो सकता है, ज्ञान नहीं। जिस दिन कोई जान लेता है, उस दिन अगर गीता को पढ़े, तो वह कह सकता है कि ठीक। गीता वही कह रही है, जो मैंने जाना। वेद को पढ़े, तो कहेगा, ठीक। कुरान को पढ़े, तो कहेगा, ठीक। कुरान वही कहता है, जो मैंने जाना । 311 और ध्यान रहे, जो हम नहीं जानते, उसे हम कभी भी गीता में न पढ़ पाएंगे। हम वही पढ़ सकते हैं, जो हम जानते हैं। इसलिए गीता जब आप पढ़ते हैं, तो उसका अर्थ दूसरा होता है। जब आपका पड़ोसी पढ़ता है, अर्थ दूसरा होता है। जब और दूसरा | पढ़ता है, तो अर्थ दूसरा होता है। जितने लोग पढ़ते हैं, उतने अर्थ होते हैं। होंगे ही, क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति वही पढ़ सकता है, जो उसकी क्षमता है। हम जब कुछ समझते हैं, तो वह व्याख्या है, वह हमारी व्याख्या है। और शब्दों से बड़ी भ्रांतियां पैदा हो जाती हैं। कोई कुछ समझता | है, कोई कुछ समझता है। एक ही शब्द से हजार अर्थ निकलते हैं। अभी मैं विनोद भट्ट की एक कथा पढ़ रहा था चार-छः दिन पहले। पढ़ रहा था कि एक गांव के नेता बहुत मुश्किल में पड़ गए, क्योंकि कोई नया आंदोलन पकड़ में नहीं आ रहा था। और नेता का तो धंधा मर जाए, सीजन मर जाए, अगर कोई नया आंदोलन हाथ में न आए। फिर उन्होंने बहुत सोचा, फिर माथापच्ची की और उनको खयाल आया कि पहले भूमिदान आंदोलन चला, तो वह सफल नहीं हुआ। फिर भूमि - छीनो आंदोलन चला, वह भी सफल नहीं हुआ। हम पत्नी - छीनो आंदोलन क्यों न चलाएं! जिसके पास दो पत्नियां हैं, उसकी एक छीनकर उसको दे दी जाए, जिसके पास
SR No.002406
Book TitleGita Darshan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages488
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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