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________________ कृष्ण का संन्यास, उत्सवपूर्ण संन्यास थोड़ी रिश्वत देनी पड़ती है, वह मैं दे लेता हूं। क्योंकि उसके बिना यह नहीं हो सकेगा। कृष्ण कहते हैं कि जिस आदमी की इच्छाएं छूट जाएं, उस आदमी बुरे कर्म तत्काल छूट जाते हैं। लेकिन अच्छे कर्म नहीं छूटते । अच्छा कर्म वही है – उसकी परिभाषा अगर मैं देना चाहूं, तो ऐसी देना पसंद करूंगा – अच्छा कर्म वही है, जो बिना इच्छा के भी चल सके। और बुरा कर्म वही है, जो इच्छा के पैरों के बिना न चल सके। जिस कर्म को चलाने के लिए इच्छा जरूरी हो, वह बुरा है; और जिस कर्म को चलाने के लिए इच्छा बिलकुल भी गैर-जरूरी हो, वह कर्म अच्छा है। अच्छे का एक ही अर्थ है, जीवन के स्वभाव से निकले, जीवन से निकले। कृष्ण कहते हैं, अगर इच्छाएं छोड़ दे कोई और सिर्फ कर्म करे, तो उसे मैं संन्यासी कहता हूं। यह बड़ी इसोटेरिक, बड़ी गुह्य व्याख्या है। साधारणतः यही दिखाई पड़ता है संन्यासी और गृहस्थ का फर्क कि गृहस्थ वह है ज़ो घर में रहे, संन्यासी वह है जो घर छोड़ दे। कृष्ण की परिभाषा में उलटा भी हो सकता है। घर में रहने वाला भी संन्यासी हो सकता है, घर छोड़ने वाला भी गृहस्थ हो सकता है। कृष्ण की परिभाषा थोड़ी गहन है। अगर कोई आदमी घर छोड़ दे, किसी इच्छा के लिए, तो वह गृहस्थ है। और अगर कोई आदमी घर में चुपचाप रहा आए बिना किसी इच्छा के, तो वह संन्यासी है। अगर कोई आदमी अपने घर में बिना इच्छाओं के जीने लगे, तो घर गया। और अगर कोई आदमी आश्रम में जाकर नई इच्छाओं के आस-पास जाल बुनने लगे, तो वह घर हो गया। आश्रम ऐसा संन्यासी आपने देखा है, जिसकी इच्छा न हो? अगर ऐसा संन्यासी नहीं देखा जिसकी इच्छा न हो, तो समझना कि आपने संन्यासी ही नहीं देखा है। आदमी का मन, बहुत रूपों में अपने को बचाने में कुशल है। सब तरफ से अपने को बचाने में कुशल है । विपरीत स्थितियों में भी अपने को बचा लेता है। जंगल में भी बैठ जाएं, तो वहां भी इच्छा के जाल बुनता रहता है। मंदिर में, तीर्थ में भी बैठकर इच्छाओं के जाल बुनता रहता है। मन का काम ही इच्छाओं के जाल निर्मित करना है। अगर हम ऐसा कहें कि मन ऐसा वृक्ष है, जिस पर इच्छाओं के पत्ते लगते हैं, लगते ही चले जाते हैं। एक पत्ता कुम्हलाया, गिरा नहीं कि नए पत्ते के पीके निकलने शुरू हो गए, अंकुरित होने लगे। अगर और गहरे में देखें, तो पुराना पत्ता गिरता तभी है, जब उसके नीचे से नया पत्ता उसे गिराने के लिए धक्के देने लगता है। एक इच्छा छूटती तभी है, जब दूसरी इच्छा जगह बनाने के लिए मांग करती है कि मुझे जगह खाली करो । एक इच्छा हटती तभी है, जब उससे भी प्रबल इच्छा धक्के देकर जगह बनाती है। मन में इच्छाएं निर्मित होती चली जाती हैं। 5 कृष्ण कहते हैं, इच्छाएं न हों, तो संन्यासी हो जाएगा। मैं आपसे कहता हूं, जिसमें इच्छाएं न रहीं, उसमें मन भी न रहा। क्योंकि मन और इच्छाएं एक ही चीज का नाम है। मन समस्त इच्छाओं का जोड़ है, समस्त कामनाओं का जोड़, समस्त तृष्णाओं का जोड़। अगर इच्छाएं न रही, तो मन न रहा। कृष्ण कहते हैं, जिसके पास मन न रहा, वह संन्यासी है। कर्म न रहा, नहीं; मन न रहा, वह संन्यासी है। बुरे कर्म तो गिर जाएंगे, क्योंकि बुरे कर्म बिना इच्छाओं के कोई भी नहीं कर सकता। इसमें एक बहुत गहन आस्था भी प्रकट की गई है। कृष्ण की मनुष्य पर निष्ठा अपरिसीम है। इतनी निष्ठा शायद किसी दूसरे व्यक्ति की पृथ्वी पर कभी रही हो । जो आदमी भी माना है कि तुम्हें अच्छा होना पड़ेगा, उस आदमी की आदमी पर बहुत निष्ठा नहीं है। कृष्ण की निष्ठा है कि आदमी तो अच्छा है, सिर्फ मन मौजूद न हो, तो आदमी की अच्छाई में कोई कमी ही नहीं है। वह अच्छा है ही । वह स्वभावतः अच्छा है। वह शुभ है। इतनी ही शर्त | काफी है कि वह इच्छाएं छोड़ दे और उसके भीतर शुभ का जन्म हो जाएगा। वह बिलकुल शुद्ध, पवित्रतम, निर्दोष, निष्कलंक प्रकट हो जाएगा। उसकी इनोसेंस, उसका निर्दोषपन जाहिर हो जाएगा। जैसे दर्पण पर धूल जम गई हो और धूल को किसी ने पोंछ दिया और दर्पण शुद्ध हो जाए। लेकिन क्या आप कहेंगे कि जब दर्पण पर धूल थी, तब दर्पण अशुद्ध हो गया था ? आपको तस्वीर नहीं | दिखाई पड़ती थी, यह बात दूसरी है। लेकिन दर्पण तब भी अशुद्ध नहीं हो गया था । दर्पण तब भी पूरा ही दर्पण था। सिर्फ धूल की एक पर्त थी कि तस्वीर दिखाई नहीं पड़ती थी । दर्पण में धूल कहीं घुस नहीं गई थी, प्रवेश नहीं कर गई थी, बाहर ही बाहर थी। फूंक मार दी, झाड़ दी। धूल हट गई, दर्पण साफ हो गया। कृष्ण की दृष्टि में आदमी दर्पण की तरह शुद्ध है। इच्छाएं करता है, तो धूल इकट्ठी कर लेता है चारों तरफ, इच्छाओं के कण इकट्ठे कर लेता है।
SR No.002406
Book TitleGita Darshan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages488
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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