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________________ - यह किनारा छोड़ें - भी आत्मा नहीं बनती। | हो और तू बीच में डूब भी जाए; तो भी मैं तुझसे कहता हूं कि शुभ कृष्ण को पता नहीं था, तो उन्होंने इतना ही कहा, नैनं छिंदन्ति | कर्म जिसने किया, उसकी दुर्गति कभी नहीं होती है। शस्त्राणि। उन्होंने कहा कि शस्त्र छेद देने से आत्मा नहीं मरती है। शुभ कर्म जिसका सफल हो जाए, उसकी तो दुर्गति का सवाल अब अगर गीता फिर से लिखनी पड़े, तो उसमें यह भी जोड़ देना ही नहीं है। लेकिन शुभ कर्म जिसका सफल भी न हो पाए, उसकी चाहिए कि परखनली में शरीर बनाने से आत्मा नहीं बनती है। दोनों | भी दुर्गति नहीं होती। इससे दूसरी बात भी आपको कह दूं, तो जल्दी एक ही चीज के दो छोर हैं। एक ही तर्क के दो छोर हैं। न तो मारने | खयाल में आ जाएगा। से मरती है आत्मा, और न शरीर को बनाने से बनती है आत्मा। ___ अशुभ कर्म जिसने किया, सफल न भी हो पाए, तो भी दुर्गति ___ यह जो अनिर्मित, अजन्मी, अजात, अमृत आत्मा है, कृष्ण कहते हो जाती है। मैंने आपकी हत्या करनी चाही, और नहीं कर पाया, हैं, इसका कभी कोई विनाश नहीं है अर्जुन। यह तो वे एक सामान्य तो भी दुर्गति हो जाती है। नहीं कर पाया, इसका यह मतलब नहीं सत्य कहते हैं। पापी की आत्मा का भी कोई विनाश नहीं है। |कि मैंने आपकी गर्दन दबाई और न दब पाई। नहीं, आपकी गर्दन दूसरी बात वे कहते हैं, लेकिन जिसने शुभ कर्म किए! | तक भी नहीं पहुंच पाया, तो भी दुर्गति हो जाती है। नहीं कर पाया, ध्यान रहे, अर्जुन ने पूछा है कि मैं कोशिश भी करूं और सफल | इसका यह मतलब नहीं कि मैंने आपसे कहा कि हत्या कर दूंगा, न हो पाऊं, श्रद्धायुक्त कोशिश करूं और असफल हो जाऊं, और नहीं की। नहीं, मैं आपसे कह भी नहीं पाया, तो भी दुर्गति हो क्योंकि मैं मेरे मन को जानता हूं; कितनी ही श्रद्धा से करूं, मन की जाती है। भीतर उठा विचार भी अशुभ का दुर्गति की यात्रा पर पहुंचा चंचलता नहीं जाती है। श्रद्धा से भरा हुआ असफल हो जाए मेरा देता है। बीज बो दिया गया। कर्म, तो मैं बिखर तो न जाऊंगा बादलों की भांति! मेरी नाव डूब । गलत विचार भी काफी है दुर्गति के लिए। सही विचार भी काफी तो न जाएगी किनारे को खोकर, दूसरे किनारे को बिना पाए! है दुर्गति से बचने के लिए। क्यों? क्योंकि अंततः हमारा विचार ही कृष्ण कहते हैं, शुभ कर्म जिसने किया। हमारे जीवन का फल बन जाता है। फल कहीं बाहर से नहीं आते। जरूरी नहीं कि शुभ कर्म सफल हुआ हो। किए की बात कर हमारे ही भीतर उनकी ग्रोथ, उनका विकास होता है। रहे हैं, इसको ठीक से समझ लेना आप। शुभ कर्म जिसने बुद्ध ने धम्मपद में कहा है कि तुम जो हो, वह तुम्हारे विचारों किया-जरूरी नहीं कि सफल हो—ऐसे व्यक्ति की कोई दुर्गति | का फल हो। अगर दुखी हो, तो अपने विचारों में तलाशना, तुम्हें नहीं है। सफलता की बात नहीं है। | वे बीज मिल जाएंगे, जिन्होंने दुख के फल लाए। अगर पीड़ित हो, ___ एक आदमी ने शुभ कर्म करना चाहा, एक आदमी ने शुभ कर्म | | तो खोजना; तुम्हीं अपने हाथों को पाओगे, जिन्होंने पीड़ा के बीज करने की कोशिश की, एक आदमी ने शुभ की कामना की, एक | बोए। अगर अंधकार ही अंधकार है तुम्हारे जीवन में, तो तलाश . आदमी के मन में शुभ का बीज अंकुरित हुआ, कोई हर्जा नहीं कि | करना; तुम पाओगे कि तुम्हीं ने इस अंधकार का बड़ी मेहनत से अंकुर न बना, कोई हर्जा नहीं कि वृक्ष न बना, कोई हर्जा नहीं कि | निर्माण किया। हम अपने नर्कों का निर्माण बड़ी मेहनत से करते हैं! फल कभी न आए, फूल कभी भी न लगे। लेकिन जिस आदमी ने - दोनों ही बातें सोच लेना। शभ का बीज भी बोया, अनअंकरित, अंकर भी न उठा हो. उस बरा कर्म असफल भी हो जाए, तो भी बरा फल मिलता है। आदमी के भी जीवन में कभी दुर्गति नहीं होती है। | कहेंगे आप, फिर उसको असफल क्यों कहते हैं? कृष्ण बहुत अदभुत बात कह रहे हैं। शुभ कर्म सफल हो, तब बुरा कर्म असफल भी हो जाए, पूरा न हो पाए, घटित न हो पाए, तो दुर्गति होती ही नहीं अर्जुन, लेकिन तू जैसा कहता है, अगर ऐसा | वस्तु के जगत में न आ पाए, घटना के जगत में उसकी कोई भी हो जाए, कि तू शुभ की यात्रा पर निकले और तेरा मन साथ न | प्रतिध्वनि न हो पाए, सिर्फ आपमें ही खो जाए, सिर्फ स्वप्न बनकर दे; तेरी श्रद्धा तो हो, लेकिन तेरी शक्ति साथ न दे; तेरा भाव तो | ही शून्य हो जाए, तो भी, तो भी फल हाथ आता है-दुखों का, हो, लेकिन तेरे संस्कार साथ न दें: त चाहता तो हो कि दूसरे किनारे | पीड़ाओं का, कष्टों का। दुर्गति हो जाती है। अच्छे कर्म का खयाल पर पहुंच जाऊं, लेकिन तेरी पतवार कमजोर हो; तेरी आकांक्षा तो सफल न भी हो पाए...।। दृढ़ हो कि निकल जाऊं उस पार, लेकिन तेरी नाव ही छिद्र वाली बुद्ध एक कथा कहा करते थे। एक व्यक्ति आया। राजकुमार 283
SR No.002406
Book TitleGita Darshan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages488
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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