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________________ गीता दर्शन भाग-3 हम बेईमान पदार्थवादी हैं। हम कहते हैं, आनंद! हम आनंद लिए ही जीते हैं। और जीवनभर सुख और दुख की ही चेष्टा करते हैं। और ध्यान रहे, बेईमान पदार्थवादी से ईमानदार पदार्थवादी बेहतर है, कम से कम ईमानदार है। और ध्यान रहे, ईमानदार पदार्थवाद कभी भी आध्यात्मिक हो सकता है। बेईमान पदार्थवाद कभी भी आध्यात्मिक नहीं हो सकता। क्योंकि बेईमान है ! दोहरी बीमारियां जुड़ी हैं। पदार्थ तो बीमारी है ही, बेईमानी और भारी बीमारी है। हमारे मुल्क में एक बड़ी भ्रांति छा गई है कि हम सब आध्यात्मिक हैं। इससे बड़ा दुर्भाग्य घटित नहीं हो सकता। यह ऐसा ही है कि किसी अस्पताल के सब मरीजों को खयाल आ जाए कि हम परम स्वस्थ हैं; हम गामा हैं! वह अस्पताल गया! मरीज मरेंगे। क्योंकि डाक्टर की अब सुन नहीं सकते वे । डाक्टर अगर कहेगा, इलाज; वे कहेंगे, बाहर हो जाओ। तुम्हारा दिमाग खराब है! हम परम स्वस्थ हैं ! इलाज करना है, पश्चिम चले जाओ । उधर लोग बीमार हैं। इस अस्पताल में सब स्वस्थ हैं। यहां तो कोई बीमार कभी पड़ता ही नहीं। बीमार को भ्रांति पैदा हो जाए कि मैं स्वस्थ हूं, तो उसका इलाज भी नहीं हो सकता। बीमार को तो ठीक से जानना चाहिए कि मैं बीमार हूं। बीमारी की पीड़ा जितनी साफ हो, उतना इलाज हो सकता है। इस मुल्क के अध्यात्मवाद का जो खयाल हमारे दिमाग में बैठ गया भारी होकर, उसके कारण हैं। इस मुल्क में ऐसे लोग पैदा हुए, जो आध्यात्मिक थे। लेकिन यह मुल्क आध्यात्मिक नहीं हो जाता इसलिए कि इस मुल्क में लोग पैदा हुए जो आध्यात्मिक थे। किसी घर में आइंस्टीन पैदा हो जाए, तो पूरा घर कोई नोबल प्राइज विनर नहीं हो जाता । कि सब कह दें कि हमारे घर में आइंस्टीन पैदा हुए, तो नोबल प्राइज तो हमारे घर के हर बच्चे का जन्मसिद्ध अधिकार है! बुद्ध पैदा हो जाएं, कृष्ण पैदा हो जाएं, इससे हम अध्यात्मवादी नहीं हो जाते। बल्कि इससे हमारे ऊपर एक और बड़ा दायित्व, एक और बड़ी रिस्पांसिबिलिटी गिर जाती है कि जिन्होंने बुद्ध पैदा किया, उनका भौतिकवाद होना अत्यंत दुखद और पीड़ादायी हो जाता है। इससे हम आध्यात्मिक नहीं हो जाते, बल्कि इससे हमारा भौतिकवाद और भी पीड़ादायी हो जाना चाहिए। कि जिन्होंने बुद्ध, और महावीर, और कृष्ण, और ऋषभ पैदा किए, उनकी हालत ! उनकी हालत दो-दो कौड़ी को पकड़ने की हो, उनकी हालत चौबीस घंटे पदार्थ के चिंतन की हो ! 204 हां, इसको अगर अध्यात्मवाद हम समझते हों कि रोज उठकर हम सुबह गीता पढ़ लेते हैं। कितनी बार पढ़िएगा? और जब पहली बार आपकी बुद्धि में नहीं आई, तो आप समझते हैं, दूसरी बार आपकी बुद्धि थोड़ी ज्यादा हो जाएगी ? डिटेरियोरेट हो रही है बुद्धि रोज । कल जितनी थी, कल और कम हो जाने वाली है। दूसरी बार और कम समझ में आएगी। और तीसरी बार समझने की जरूरत ही नहीं रह जाएगी, तोते की तरह दोहराए चले जाएंगे। फिर जिंदगीभर आदमी गीता पढ़ता रहता है और सोचता है। कुछ नहीं समझता; शब्द दोहराता है। आध्यात्मिक होना हो, तो जीवंत प्रयोग की जरूरत है। कृष्ण प्रयोग की ही बात कर रहे हैं। वे कह रहे हैं, पदार्थ से हटाओ। सोचेंगे, कभी न हटा पाएंगे। हटाना शुरू करें। अभी थोड़ी ही | देर में पदार्थ पकड़ेगा, तब पदार्थ से दूर रहकर – अभी प्यास लगेगी और पानी पीएंगे, तब थोड़ा प्यास से दूर खड़े होकर प्यास को भी देखना, पानी को भी देखना। पानी प्यास को बुझा रहा है, यह भी देखना। और आप देखने वाले रहना। आप न प्यासे बनना और न पानी बनना। जब प्यास मिट जाए, तब भी आप जानने वाले रहना कि अब प्यास मिट गई। आप प्यास मत बन जाना, अन्यथा पानी पर पागलपन शुरू हो जाएगा। आप जरा दूर खड़े | होकर देखते रहना । यह दूर खड़े होने की कला, यह प्रतिपल दूर खड़े होने की कला, ठीक वस्तुओं के बीच में अनासक्त होने की कला ही किसी क्षण उस विस्फोट में ले आती है जीवन को, जहां हम परमात्मा से एक जाते हैं। अभी इतना ही। पर बैठें। पांच मिनट थोड़ा प्रयोग कर लें। दो-तीन बातें आपसे कह दूं, तो आपको आसानी होगी। कई मित्र मुझे पूछ रहे हैं कि संकीर्तन क्या है ? तो दो-तीन बात आप समझ लें। फिर आप देख भी लें। क्योंकि कुछ चीजें हैं, जो कही नहीं जा सकतीं और बताई जा सकती हैं। तो कुछ मैं आपको बताऊं कि संकीर्तन क्या है। कुछ थोड़ा-सा कह दूं, तो आपको खयाल में आ जाए। एक, संकीर्तन छलांग है- ए जंप - बुद्धि के बाहर । ध्यान रखना, बुद्धि के बाहर। वह जो सोच-विचार का जगत है हमारे मन
SR No.002406
Book TitleGita Darshan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages488
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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