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________________ < गीता दर्शन भाग-3 - अतिरिक्त कुछ नहीं बचता। खुद नहीं पढ़ सकते, दूसरे की तो बात | | सुन, असली बात यह है कि लिखना आसान है, पढ़ना बहुत कठिन अलग है। जिंदगी के बाद में जिंदगी ने क्या पाया, जिंदगी ने क्या है। हम खुद ही नहीं पढ़ पाते कि क्या लिखा है। निष्कर्ष लिया, जिंदगी कहां पहुंची, खुद नहीं बता सकते; दूसरे की ये जिंदगी के बाबत उसके मजाक हैं। जिंदगी के आखिर में जब तो बात अलग है। आप अपनी जिंदगी को उठाकर देखेंगे, तो पाएंगे कि कुछ समझ में सुना है मैंने, एक बहुत अदभुत फकीर हुआ, मुल्ला नसरुद्दीन। नहीं आता, यह क्या लिखा है मैंने! इस सारी कथा की न कोई गांव में अकेला आदमी था, जो लिख-पढ़ सकता था। तो गांव के | शुरुआत है, न कोई अंत है। न इस कथा में कोई तुक है, न इस लोग उससे चिट्ठियां लिखवाते थे। तो दो घटनाएं उसकी मैं कहना कथा में कोई संगति है। यह मैंने किया क्या? यह करीब-करीब चाहता हूं। वह बहुत कीमती आदमी था। उसने आदमी पर गहरे ऐसा है, जैसा एक पागल आदमी लिखता और जो परिणाम होता, मजाक किए हैं। उसकी सब घटनाएं आदमियों पर मजाक हैं। वह मेरा हो गया है। एक बूढ़ी औरत उससे चिट्ठी लिखवाने आई। नसरुद्दीन ने कहा यह होगा; यह होने वाला है। इसीलिए हम बुढ़ापे में बचपन की कि माफ कर। आज चिट्ठी नहीं लिख सकूँगा। क्योंकि मेरे अंगूठे | याद करते हैं कि बड़े सुखद दिन थे! सुखद वगैरह कुछ भी न था। में बहुत दर्द है, पैर के अंगूठे में बहुत दर्द है। उस स्त्री ने कहा, बच्चों से पूछो। सब बच्चे जल्दी बड़े होना चाहते हैं। बचपन बड़ी लेकिन मैंने कभी सुना नहीं कि पैर के अंगूठे से कोई चिट्ठी लिखता तकलीफ में गुजरता है। क्योंकि बचपन से ज्यादा गुलामी और कभी है! पैर के अंगूठे में दर्द है, तो रहने दो। मेरी चिट्ठी तो लिख दो। नहीं होती जिंदगी में। मां कहती है, इधर बैठो। बाप कहता है, उधर उसने कहा कि माई, तू समझती नहीं। मुझे झंझट में मत डाल। तो | बैठो। इसी में वक्त जाया होता है। उसने कहा, इसमें झंझट क्या है! तुम्हारा हाथ तो ठीक है। उसने | एक बच्चे से उसके स्कूल में उसके शिक्षक ने पूछा कि तू बनना कहा, हाथ बिलकुल ठीक है। सब ठीक है। लेकिन पैर के अंगूठे | क्या चाहता है? उसने कहा, मैं बहुत कनफ्यूज्ड हूं। क्यों? क्योंकि में बड़ी तकलीफ है। बूढ़ी औरत ने कहा कि मैं पढ़ी-लिखी नहीं, | मेरी मां मुझे गणितज्ञ बनाना चाहती है। मेरा बाप मुझे कवि बनाना लेकिन इतना तो मैं भी समझती हूं कि पैर के अंगूठे से लिखने का चाहता है। मेरी चाची मुझे संगीतज्ञ बनाना चाहती है। मेरा बड़ा भाई कोई संबंध नहीं। मुझे नेता बनाना चाहता है। और भी बहुत रिश्तेदार हैं, वे सब नसरुद्दीन ने कहा, अब तू नहीं मानती, तो हम बताए देते हैं। बनाना चाहते हैं। और मुझे तो कुछ पता नहीं है कि मुझे क्या बनना चिट्ठी तो हम लिख देंगे, लेकिन उसको पढ़ेगा कौन दूसरे गांव में? है। बस, इस सबके बीच डोल रहा हूं। चिट्ठी लिखकर फिर हमीं को पढ़ने भी जाना पड़ता है! और कई बार बचपन, बच्चों से पूछो, सुखद नहीं है। बच्चे बहत पीड़ा से तो ऐसा हो जाता है, नसरुद्दीन ने कहा कि तू किसी को बताना मत, | गुजरते हैं। और एक बहुत बड़े मनोवैज्ञानिक जी.एन.पियागेट ने, कि हम खुद भी नहीं पढ़ पाते कि क्या लिखा है! पैर में मेरे बहुत | | जिसने बच्चों के साथ कोई पचास वर्ष मेहनत की है, उसका कहना तकलीफ है, अभी मुझे तू झंझट में मत डाल। है कि पांच साल के पहले की स्मृति इसीलिए भूल जाती है, क्योंकि एक बार ऐसा हुआ कि एक दूसरा आदमी नसरुद्दीन से चिट्ठी | बहुत दुखद है। आपको याद नहीं आती, पांच साल की उम्र के लिखवाने आया। नसरुद्दीन ने पूरी चिट्ठी लिख दी। चिट्ठी लिखने | पहले की कोई स्मृति याद नहीं आती। क्यों भूल जाती है? कारण के बाद उस आदमी ने कहा कि अब जरा मुझे पढ़कर तो सुना दो, क्या है? जी.एन.पियागेट कहता है कि सिर्फ इसलिए भूल जाती है कहीं मैं कुछ भूल तो नहीं गया लिखवाने को। नसरुद्दीन मुश्किल कि वह इतनी दुखद है कि मन उसे याद नहीं करना चाहता। लेकिन में पड़ा। उसने कहा कि देख भाई, यह गैरकानूनी है। उसने कहा बुढ़ापे में हम कहते हैं कि बचपन बड़ा सुखद था, स्वर्ग था! में क्या गैरकानूनी बात है! नसरुद्दीन ने कहा, यह चिट्ठी तु वह बढ़ापे के नर्क की वजह से कह रहे हैं; और कोई कारण नहीं बता किसके नाम लिखी गई है? वही इसके पढ़ने का हकदार है। है। नर्क हम अपने हाथ से बना लेते हैं। मैं नहीं पढ़ सकता। उस आदमी ने कहा कि बात तो ठीक है। जिस | इस मन की विक्षिप्त अवस्था को जब तक कोई संयम में न ले आदमी के नाम लिखी गई है, वही पढ़े। मैं नहीं पढ़ सकता। जब आए, निरोध को न उपलब्ध हो जाए, तब तक प्रभु की यात्रा नहीं वह आदमी जाने लगा कि बात ठीक है, तो नसरुद्दीन ने कहा कि हो सकती है। और निरोध को उपलब्ध होने की विधि साक्षी भाव 186
SR No.002406
Book TitleGita Darshan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages488
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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