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________________ मन साधन बन जाए - जो लोग परमात्मा की तरफ जाते हैं, वे मन को इस भांति बंद कर नहीं, लेकिन पैर के आप मालिक हैं। जब आप चलना चाहते देते हैं कि संसार से टूट जाते हैं। वह वही की वही भूल हो गई, जो | हैं, पैर चलते हैं। जब आप रुकना चाहते हैं, पैर थिर हो जाते हैं। पहले हो रही थी, कि इस मन को इतना गतिमान कर लेते हैं कि उस ठीक ऐसी ही मालकियत मन की भी होनी चाहिए। मन भी एक पर काबू नहीं रह जाता और परमात्मा से टूट जाते हैं। उपकरण है, जैसे पैर एक उपकरण है। मन भी एक इंस्ट्रमेंट है। सम्यक! सम्यक व्यक्तित्व वह है, कृष्ण कह रहे हैं, जो मन का | लेकिन आप रात सोने को बिस्तर पर पड़े हैं। आप मन से कहते मालिक हो जाए। मालकियत का मतलब, मन को मार डालना नहीं | हैं कि अब चुप हो जाओ; अब बंद हो जाओ; मुझे सो जाने दो। है। मरी हुई चीज के मालिक होने का कोई मतलब नहीं होता। मरी लेकिन वह चले चला जा रहा है! वह आपकी सुनता ही नहीं। इसमें हुई चीज के मालिक होने का क्या मतलब होता है? दुश्मन को मार मन का कोई कसूर नहीं है, ध्यान रखना। नहीं तो आप सोचें कि डाला और उसकी छाती पर बैठ गए, उसका क्या मतलब? मृत | अरे, यह मन ही ऐसी चीज है। मन का इसमें कोई कसूर नहीं है। चीज की मालकियत का कोई मतलब नहीं होता है; जीवित चीज | इसमें मन का कोई भी कसूर नहीं है, इसलिए जो मन को गालियां की मालकियत का कुछ मतलब होता है। | देते रहते हैं, वे निपट नासमझ हैं। मालकियत का इसलिए अर्थ, मन को मार डालना नहीं है। - आपने ही मन की ऐसी व्यवस्था कर रखी है। आपने ही मन को मालकियत का अर्थ, मन को स्वेच्छा से गतिमान करना या गतिहीन | जीवनभर इस तरह का शिक्षण दिया है। आपने ही कभी मन पर कर देने की क्षमता है—स्वेच्छा से, जब चाहें। जैसे कोई आदमी अपनी मालकियत की घोषणा नहीं की। आपने कभी मन को बंद अपने घर के बाहर आ जाता है। जब चाहता है, घर के भीतर चला | करने का कोई उपाय नहीं किया। आप अपने मन को चलाते ही रहे जाता है। बाहर आ जाता है, तो बाहर ऐसा नहीं अटक जाता कि | हैं। आप चलाते ही रहे हैं अकारण-कारण। मन को चलाते ही रहे अब कहे कि मैं घर के भीतर कैसे जाऊं। भीतर चला जाता है, तो हैं। मन का ट्रैक तैयार हो गया है। अटक नहीं जाता। यह नहीं कहता कि अब भीतर आ गया, तो घर । मन जन्मों-जन्मों से चलने का आदी हो गया है। ठहरने की उसे के बाहर कैसे जाऊ! | कोई खबर ही नहीं रही। उसे पता ही नहीं है कि ठहरना भी होता है। घर के भीतर और बाहर जैसी सहज गति आप करते हैं, ऐसे ही और इसलिए जब आप अचानक एक दिन मन से कहते हैं, ठहर स्वयं के बाहर और भीतर सहज गति स्वेच्छा से संभव हो जाए, तो जाओ, तब वह नहीं ठहरता, तो इसमें उसका कसूर नहीं है। और मन की मालकियत है। तो कहा जाएगा. मन निरुद्ध हआ। लेकिन आपके कहने से नहीं ठहरेगा। मन पूरी तरह जीवित है। और जब उसकी जरूरत हो, तब उसको सच तो यह है कि आप जितने घबड़ाकर कहते हैं कि ठहर स्फुरणा दी जा सकती है। और उसकी जरूरत चौबीस घंटे पड़ेगी। जाओ, वह भी मन की ही गति है। आपका घबड़ाकर कहना कि • अस्तित्व संसार में है। मन की जरूरत पड़ेगी। लेकिन मन आपके ठहर जाओ, मन की ही गति है। और आपके कहने से नहीं ठहरेगा, हाथ में एक साधन हो जाए, तो आप मालिक हो गए। आपको कला आनी चाहिए ठहराने की। अभी तो हम मन के हाथ में एक साधन हैं। मन चलता है; हम कार चलाते हों और ब्रेक लगाना न आता हो, और चिल्लाते हों उससे कहते हैं, कृपा करो, मत चलो! वह सुनता ही नहीं। वह | | कि ठहर जाओ; वैसा ही पागलपन है। चिल्लाते रहें, कार नहीं चलता ही.चला जाता है। हमारे मन की हालत ऐसी है, जैसे किसी ठहरेगी। और एक्सेलरेटर पर पैर दबाए चले जा रहे हैं! और आदमी के पैरों की हालत हो जाए। उसको चलना नहीं है, लेकिन | | चिल्ला रहे हैं, ठहर जाओ! और ब्रेक लगाना आता नहीं। और ब्रेक पैर उसको कहें कि हम तो चलेंगे! उसको कहीं जाना नहीं है, उसे | | कभी लगाया नहीं। ब्रेक जाम हो गए हैं। आज अचानक पैर भी कुर्सी पर बैठकर आराम करना है, लेकिन पैर हैं कि चले जा रहे हैं। | रखेंगे, तो जंग खा गए हैं। उनको तेल की जरूरत पड़ेगी; ब्रेक तो उस आदमी को हम विक्षिप्त कहेंगे। हम कहेंगे, इस आदमी के | आयल की जरूरत पड़ेगी। उनको फिर से गति देने के लिए सुगम, पैर इसके मालिक हो गए। यह कहता है, रुको। लेकिन पैर नहीं | | सरल और ढीला होना पड़ेगा। उनको कभी नहीं लगाया, सदा रुकते। जब यह कभी कहता है, चलो! तब पैर कहते हैं, नहीं | एक्सेलरेटर दबाया और सदा चिल्लाते रहे। फिर धीरे-धीरे आपको चलते; रुकेंगे। | पता चलने लगा कि कितना ही चिल्लाओ, यह कार बड़ी खराब है; 11811
SR No.002406
Book TitleGita Darshan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages488
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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