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________________ योग का अंतर्विज्ञान थीं, शाम तीन रोटी। उसने कहा, कल से हम व्यवस्था बदलते हैं। कल सुबह से तुम्हें तीन रोटी सुबह मिलेंगी, चार रोटी शाम। बंदर बहुत नाराज हो गए। चीखने-चिल्लाने लगे, कि हम बरदाश्त नहीं कर सकते यह बात । बंदरों ने तीन रोटी लेने से इनकार कर दिया। वह मालिक बड़ा हैरान हुआ। उसने कहा कि पागलो, जोड़ो भी तो ! तो मैंने सुना है कि बंदरों ने कहा, जोड़ करता ही कौन है ! हमें सुबह चार चाहिए, जैसी हमें सदा मिलती रही हैं ! कोई रास्ता न देखकर उन्हें चार रोटियां दी गईं, बंदर राजी हो गए। शाम उनको तीन रोटी मिलतीं, सुबह चार मिलतीं। वे तृप्त। सुबह तीन मिलतीं, शाम चार मिलतीं, सात ही होती थीं, लेकिन जोड़ कौन करता है ! आदमी नहीं करते, तो बंदर क्यों करें? मैंने सुना है, उन बंदरों ने कहा, आदमी नहीं करते! हम बंदर क्यों जोड़ की झंझट में पड़ें! हमें चार सुबह मिलती थीं, चार चाहिए। शाम तीन मिलती थीं, तीन चाहिए। हम झंझट में नहीं पड़ते। एक आदमी में थोड़ा क्रोध ज्यादा होता है, थोड़ा लोभ कम होता है, दोनों का जोड़ बराबर सात होता है। इन चारों का जोड़ सब आदमियों में बराबर है। लेकिन जोड़ कोई करता नहीं। और एक-एक को, जिसको क्रोध ज्यादा लगता है, वह कहता है, क्रोध से किस तरह छूट जाऊं ? लोभ की तो झंझट नहीं है; क्रोध ही की झंझट है। उसे पता नहीं है कि अगर क्रोध काट दिया जाए, क्रोध की जितनी रोटियां हैं, कहीं और जुड़ जाएंगी। क्रोध कट नहीं सकता अकेला। चारों साथ रहते हैं, या चारों साथ जाते हैं। योग कहता है, ऊपर से मत लड़ो। जड़ पकड़ो। जड़ कहां है? जड़ कहां है? न तो क्रोध जड़ है, न लोभ जड़ है, न काम जड़ है, न अहंकार जड़ है। जड़ कहां है? योग कहता है, जड़ आपके मन की सिस्टम, मन की जो व्यवस्था है आपकी, उसमें जड़ है। ऐसे मन में लोभ, क्रोध होगा ही; काम, अहंकार होगा ही । यह मन का, जो आपके पास मन है, उसका स्वभाव है। इस मन को ही बदलो। इस मन की जगह नए मन को स्थापित करो। यह मन रहा और इस मन का यंत्र रहा, तो सब जारी रहेगा। इस यंत्र को नया करो, नया यंत्र स्थापित करो। तो तुम्हारे पास नया मन होगा, जिसमें क्रोध नहीं होगा, काम नहीं होगा, मोह नहीं होगा, लोभ नहीं होगा। लेकिन इस मन को बदलने का राज क्या है ? योग उसी राज का विस्तार है। और योग ने तीन प्रकार के राज कहे, तीन तरह के लोगों के लिए। क्योंकि तीन तरह के लोग हैं। वे लोग हैं, जो विचार प्रधान हैं जिनके भीतर, बुद्धि प्रधान है जिनके भीतर, उनके लिए अलग राज कहा। जिनके पीछे भाव प्रधान है, उनके लिए अलग राज कहा। जिनके पीछे कर्म प्रधान है, उनके लिए अलग राज कहा। योग की तीन शाखाएं हैं प्रमुख - फिर तो अनंत शाखाएं हो गईं— कर्म, भक्ति और ज्ञान और उन तीनों की तीन कुंजियां हैं। और एक-एक आदमी का जो टाइप है, उस आदमी को वह कुंजी लागू होती है। ताला खुलने पर एक ही मकान में प्रवेश होता है। लेकिन अलग-अलग आदमी, अलग-अलग दरवाजों पर, अलग-अलग ताले डालकर खड़े हैं। अब आदमी विचार से ही जीता है, उसके लिए प्रार्थना, कीर्तन, भजन बिलकुल अर्थपूर्ण नहीं मालूम पड़ेंगे। उसमें उसका | कसूर नहीं है, वैसा मन उसके पास है। वह सोचेगा, विचार करेगा। विचार करेगा, तो सोचेगा कि क्या होगा ! क्योंकि विचार प्रश्न उठाता है। और जहां प्रश्न उठते हैं विचार में, वहां भाव में प्रश्न नहीं उठते हैं। भाव कभी प्रश्न नहीं उठाते। भाव निष्प्रश्न हैं । भाव स्वीकार है, एक्सेप्टिबिलिटी है। भाव राजी हो जाता है, विचार संघर्ष करता है । तो विचार के लिए तो अलग ही रास्ता खोजना पड़े। योग ने उसके लिए रास्ता खोजा। ज्ञानयोग का अर्थ है, उस जगह पहुंच जाओ, जहां न ज्ञेय रह जाए और न ज्ञाता रह जाए, सिर्फ ज्ञान रह जाए। उसकी पूरी प्रक्रिया है । ज्ञेय को छोड़ो, आब्जेक्ट्स को छोड़ो। जिसे जानना हो, उसे छोड़ो, और जो जानने वाला है, उसे भी छोड़ो। वह जो जानने की क्षमता है, उसमें ही ठहरो, उसी में रमो। वह जो ज्ञान की क्षमता है, नोइंग फैकल्टी जो है, जानने की क्षमता, उसी में रमो । जैसे मैं फूल देख रहा हूं। तो तीन हैं वहां एक मैं हूं, | रहा है। एक फूल है, जिसे देख रहा हूं। और हम दोनों के बीच दौड़ती ज्ञान की धारा है। ज्ञानयोग कहता है, फूल को भी भूल | जाओ, स्वयं को भी भूल जाओ, यह जो दोनों के बीच में ज्ञान की | धारा बह रही है, इसी में ठहर जाओ, इसी में खड़े हो जाओ - ज्ञान की धारा में। मैं हूं, जो देख भाव वाले आदमी को यह बात समझ में न पड़ेगी कि ज्ञान की धारा में कैसे खड़े हो जाएं! नहीं पड़ेगी समझ में, क्योंकि भाव वाला आदमी समझ से जीता नहीं। भाव वाला आदमी भावना से जीता है, समझ से नहीं । भाव वाले आदमी से कहो कि नाचो, आनंदमग्न होकर नाचो, प्रभु-समर्पित होकर नाचो । वह नाचने लगेगा। वह 145
SR No.002406
Book TitleGita Darshan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages488
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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