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________________ 4 गीता दर्शन भाग-3 इसलिए मित्र और शत्रु के बीच समभाव रखने की क्या प्रक्रिया करता ही रहूंगा, लेकिन यह जिद्द, यह अहंकार मेरे भीतर न हो कि होगी? कौन रख सकेगा मित्र और शत्रु के बीच समभाव ? उसको | | यह काम मुझे करके ही रहना है। तो फिर ठीक है। जो काम में साथ ही कृष्ण योगी कहते हैं। कौन रख सकेगा? तो इसके थोड़े से सूत्र | दे देता है, उसका धन्यवाद; और जो काम में बाधा दे देता है, उसका खयाल में ले लें। भी धन्यवाद। जो रास्ते से पत्थर हटा देता है. उसका भी धन्यवाद: एक, जो व्यक्ति अपने लिए किसी का भी शोषण नहीं करता, और रास्ते पर जो पत्थर बिछा देता है, उसका भी धन्यवाद। जो व्यक्ति अपने लिए किसी का भी शोषण नहीं करता. वही व्यक्ति | न मुझे कहीं पहुंचना है, न मुझे कुछ कर लेना है। जीता हूं; मित्र और शत्रु के बीच समभाव रखने में सफल हो पाएगा। | परमात्मा जो काम मुझसे लेना चाहे, ले ले। जितना मुझसे बन आप मित्र कहते ही उसे हैं, जो आपके काम पड़ता है। कहावत | सकेगा, कर दूंगा। कोई ऐसी जिद्द नहीं है कि यह लक्ष्य पूरा होना है कि मित्र की कसौटी तब होती है, जब मुसीबत पड़े। जो आपके ही चाहिए। तो फिर मित्र और शत्रु के बीच कोई बाधा नहीं रह काम पड़ जाए, उसे आप मित्र कहते हैं। जो आपके काम में बाधा जाती। फिर समान हो जाती है बात। बन जाए, उसे आप शत्रु कहते हैं। और तो कोई फर्क नहीं है। ___ तो पहली बात तो आपसे यह कहना चाहूं कि जिस व्यक्ति को भी इसलिए मित्र कभी भी शत्रु हो सकता है, अगर काम में बाधा | जीवन को एक काम समझ लेने की नासमझी आ गई हो, और जिसे डाले। और शत्रु कभी भी मित्र हो सकता है, अगर काम में ऐसा खयाल हो कि उसे जिंदगी में कुछ करके जाना है, वह शत्रु और सहयोगी बन जाए। मित्र निर्मित करेगा ही। और वह समभाव भी न रख सकेगा। अगर आपका कोई भी काम है, तो आप समभाव न रख सकेंगे। __ दूसरी बात आपसे यह कहना चाहता हूं कि शत्रु और मित्र के मित्र और शत्रु के बीच वही समभाव रख सकता है, जो कहता है, | बीच समभाव रखना तभी संभव है, जब आपके भीतर वह जो प्रेम मेरा कोई काम ही नहीं है, जिसमें कोई सहयोगी बन सके और | पाने की आकांक्षा है, वह विदा हो गई हो। दूसरी बात भी ठीक से जिसमें कोई विरोधी बन सके। जो कहता है, इस जिंदगी को मैं | समझ लें। नाटक समझता हूं, काम नहीं। जो कहता है, यह जिंदगी मेरे लिए हम सबके मन में मरते क्षण तक भी प्रेम पाने की आकांक्षा विदा सपने जैसी है, सत्य नहीं। जो कहता है, यह जिंदगी मेरे लिए | नहीं होती। पहले दिन बच्चा पैदा होता है तब भी वह प्रेम पाने के रंगमंच है; यहां मैं खेल रहा हूं, कोई काम नहीं कर रहा हूं। लिए आतुर होता है, उतना ही जितना बूढ़ा मरते वक्त आखिरी श्वास जो थोड़ा भी गंभीर है जीवन के प्रति और कहता है कि यह काम | | लेते वक्त होता है। प्रेम पाने की आतुरता बनी रहती है; ढंग बदल मुझे करना है, वह शत्रुओं और मित्रों के बीच कभी भी समभाव को | जाते हैं। लेकिन प्रेम कोई करे मुझे! कोई मुझे प्रेम दे! प्रेम का भोजन उपलब्ध नहीं हो सकता। क्योंकि काम ही कहेगा कि मित्रों के प्रति | न मिलेगा, तो मैं भूखा होकर मर जाऊंगा, मुश्किल में पड़ जाऊंगा। भिन्न भाव रखो, शत्रुओं के प्रति भिन्न भाव रखो। अगर मुझे कुछ | एक बार शरीर को भोजन न मिले, तो हम सह पाते हैं। लेकिन भी करना है इस जमीन पर, अगर मुझे कोई भी खयाल है कि मैं | अगर चित्त को भोजन न मिले-प्रेम चित्त का भोजन है। चित्त को कुछ करना चाहता हूं, तो फिर मैं मित्र और शत्रु के बीच समभाव प्राण मिलते हैं प्रेम से। न रख सकूँगा। मित्र और शत्रु के बीच समभाव तभी हो सकता है, - तो जब तक जरूरत है प्रेम की, तब तक मित्र और शत्रु को एक जब मेरा कोई काम ही नहीं है इस पृथ्वी पर। मुझे कहीं पहुंचना नहीं कैसे समझिएगा! सम कैसे हो जाइएगा! तटस्थ कैसे होंगे! मित्र है। मुझे कुछ करके नहीं दिखा देना है। वह है, जो प्रेम देता है। शत्रु वह है, जो प्रेम नहीं देता है। तो जब इसका यह भी मतलब नहीं है कि मैं बिलकुल निठल्ला और | तक आपकी प्रेम की आकांक्षा शेष है कि कोई मुझे प्रेम दे...। निष्क्रिय बैठ जाऊं, तो मित्र और शत्रु के बीच समभाव हो जाएगा। ___ और यह बड़े मजे की बात है कि दुनिया में सारे लोग चाहते हैं अगर मैंने निठल्ला बैठना भी अपनी जिंदगी का काम बना लिया. कि कोई उन्हें प्रेम दे। शायद ही कोई चाहता है कि मैं किसी को प्रेम तो कुछ मेरे मित्र होंगे जो निठल्ले बैठने में सहायता देंगे और कुछ | दं! इसको थोड़ा बारीकी से समझ लेना उचित होगा। मेरे शत्रु हो जाएंगे जो बाधा डालेंगे। हम सबको यह भ्रम होता है कि हम प्रेम देते हैं। लेकिन अगर इसका यह अर्थ नहीं है। इसका इतना ही अर्थ है कि काम तो मैं | आप प्रेम सिर्फ इसीलिए देते हैं, ताकि आपको लौटते में प्रेम मिल
SR No.002406
Book TitleGita Darshan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages488
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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