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________________ जीवन एक लीला नर्स ने कंबल उठाकर बताया कि पैर के नीचे का हिस्सा तो अब का कोई बोध ही न बचे। बस, वह सिर्फ जानने वाला रह जाए। है ही नहीं। जो अंगूठा नहीं है, उसमें तकलीफ कैसे हो सकती है? | जिस दिन यह घड़ी आती है, उसी दिन समाधि फलित हो जाती उस आदमी ने देखा और उसने कहा कि दिखाई पड़ रहा है मुझे | | है। उसी दिन जीवन का परम सौभाग्य का क्षण आ जाता है। उसी भलीभांति कि पैर घुटने से नीचे का काट दिया गया है; नहीं है। | दिन हम वहां पहुंच जाते हैं, जहां जन्मों से पहुंचने की आकांक्षा है। लेकिन फिर भी मझे अंगठे में तकलीफ है। मैं भी क्या कर सकता उस दिन मंजिल मिल जाती है। वह यात्रा-पथ समाप्त होता है: हूं? उस सैनिक ने कहा, अगर अंगूठे में तकलीफ है, तो मैं भी क्या मुकाम आ जाता है। उस दिन हम मंदिर में प्रविष्ट होते हैं। उस दिन कर सकता हूं? तीर्थ आ गया, जिस दिन हमने जाना कि अब कर्ता कोई भी नहीं है। डाक्टर बुलाए गए। समझा कि कुछ भ्रम हो गया है उस आदमी | सिर्फ देखने वाला, जानने वाला है। को। बहुत तकलीफ थी; भूला नहीं है। अब तो हो नहीं सकती। दूसरे अर्थों में भी कृष्ण के कहने का प्रयोजन है। परमात्मा के पास समझाने-बुझाने की कोशिश की। लेकिन उस आदमी ने कहा, मैं अहंकार नहीं हो सकता। क्यों? क्योंकि अहंकार अहंकारों के बीच पूरे होश में हूं। मुझे दिखाई पड़ रहा है कि अब पैर नहीं बचा, में ही हो सकता है; अकेला नहीं हो सकता। दो परमात्मा जगत में इसलिए तकलीफ होनी नहीं चाहिए। तर्कयुक्त मुझे भी मालूम नहीं हैं। अहंकार, मैं का भाव सदा तू के भाव से जुड़ा हुआ है। अगर पड़ती है बात। लेकिन मैं क्या कर सकता हूं! तकलीफ है! तू न बचे, तो मैं नहीं बच सकता। कोई अर्थ नहीं रह जाता उसमें। - फिर और खोजबीन की गई, तो पाया गया कि वह आदमी ठीक । इसलिए जितने आप भीड़ में होते हैं, उतने अहंकार से भर जाते कहता था, तकलीफ थी। तो बहुत मुश्किल हो गई। जो अंगूठा नहीं | | हैं। जितने एकांत में होते हैं, उतने अहंकार से खाली हो जाते हैं। है, उसमें तकलीफ कैसे हो सकती है? खोजबीन से पता चला कि __ अगर साधक एकांत की तरफ भागता रहा है, तो उसका कारण अंगूठे की तकलीफ जिन तंतुओं के द्वारा मस्तिष्क तक पहुंचती है, | | यह नहीं है कि वह समाज से भाग रहा है। उसका बहुत गहरे में वे अभी भी खबर दे रहे हैं। अंगूठा तो बहुत दूर है मस्तिष्क से, | कारण यही है कि अकेले में उसे अहंकार के विसर्जन की सुविधा बीच में तो तारों का जाल है. जो खबर पहुंचाते हैं। वे कंपते हैं और | मालूम पड़ती है। जैसे ही दूसरा मौजूद हुआ कि मेरा मैं भी खड़ा हो कंपकर खबर पहुंचाते हैं। वे अभी भी कंप रहे हैं। मस्तिष्क के पास जाता है। जो छोर है तंतु का, वह अभी भी कंपकर खबर दे रहा है कि दर्द है। आप अपने कमरे में अकेले बैठे हैं, कोई नहीं है। तब अहंकार अंगूठा नहीं है, और दर्द है! | बहुत क्षीण होता है। होता है, क्योंकि आपके मन में दूसरे मौजूद असल में मस्तिष्क तक चेतना में कोई दर्द नहीं है। चेतना को | होते हैं। कमरे में तो मौजूद नहीं होते, मन में मौजूद होते हैं। मन में सिर्फ पता चलता है। अगर पता चलता रहे, तो ऐसा दर्द भी मालूम | | मौजूद होने के कारण थोड़ा-सा अहंकार शेष रहता है। पड़ेगा, जो नहीं है। और अगर पता न चले, तो ऐसा दर्द भी मालूम रात गहरी नींद में सो गए हैं। जब तक सपना चलता है, तब तक नहीं पड़ेगा, जो है। अहंकार थोड़ा-सा मौजूद रहता है। लेकिन जब सपना भी बंद हो चेतना सिर्फ ज्ञाता है, नोअर है, विटनेसिंग है। सिर्फ एक जाता है, तब कोई अहंकार मौजूद नहीं रह जाता; तब आपके भीतर साक्षी-भाव है। मैं का कोई भाव नहीं होता। इसलिए सुबह जब आप उठकर कहते हम भी क्रिया के भीतर कर्ता नहीं हैं। कर्ता हमारा भ्रम है। परमात्मा हैं कि रात बड़ी गहरी नींद आई, बड़ा आनंद आया; वह आनंद गहरी को ऐसा भ्रम नहीं हो सकता। इसलिए कृष्ण कहते हैं, यह सब करते नींद का नहीं है; वह आनंद मैं से मुक्त हो जाने के क्षणों का है। हुए भी मैं अकर्ता हूं। हम भी जिस दिन जानेंगे, पाएंगे यही कि सब | क्षणभर के लिए भी रात अगर इतनी गहरी नींद हो गई कि मैं न रहा, करते हुए भी अकर्ता हूं। लेकिन वह दिन दूर है। जिस दिन हम यह तो बड़ी गहरी ब्लिस, बहुत गहरे आनंद के लोक से संस्पर्श हो जाता जानेंगे, उस दिन हम भी परमात्मा का हिस्सा हो जाएंगे। है। एक स्वर्ग उस गहराई से आ जाता है, जो परमात्मा का है। एक तो इस दृष्टि से इस सूत्र को समझें। यह साधक के लिए इसलिए सुषुप्ति समाधि के बहुत करीब है, और बहुत दूर भी। उपयोगी है कि वह धीरे-धीरे अकर्ता होता चला जाए, साक्षी बनता करीब इसलिए है कि जैसे समाधि में मैं मिट जाता है, वैसे ही चला जाए। एक दिन ऐसी घड़ी आ जाए कि उसकी जिंदगी में कर्ता सुषुप्ति में भी मिट जाता है। दूर इसलिए, कि सुषुप्ति में प्राकृतिक 67|
SR No.002405
Book TitleGita Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages464
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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