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________________ दिव्य जीवन, समर्पित जीवन भूल जाता है, बाडीलेसनेस आ जाती है, शरीरहीन हो जाता है। और ये दोनों बातें एक ही हैं। ब्रह्म के शरीर को उपलब्ध होना या अपने शरीर को भूल जाना, एक ही बात है। जो व्यक्ति अपने शरीर की सीमा को भूल जाता है, वह ब्रह्म के शरीर की सीमा के स्मरण से भर जाता है। यह शरीर मेरा है, यह हमारे राग और विराग के कारण है। जब तक कोई चीज मेरी है और कोई चीज़ तेरी है, तब तक यह शरीर मेरा है। अगर ठीक से समझें, तो मेरे का भाव मेरा शरीर है। बहुत मनोवैज्ञानिक अर्थों में मेरे का भाव ही मेरा शरीर है। जहां तक मेरे का भाव है, वहां तक शरीर है। अगर मेरे का भाव बड़ा हो जाए, इतना बड़ा हो जाए कि वह ब्रह्म को घेर ले, ब्रह्मांड के साथ एक हो जाए, तो फिर सभी कुछ मेरा शरीर है। वस्तुतः सभी कुछ शरीर - वस्तुतः | लेकिन हमारी एक भ्रांति है। किस जगह आप अपने शरीर को समाप्त मानते हैं? किस जगह? चमड़ी पर अपने शरीर को आप समाप्त मानते हैं। लेकिन आपकी चमड़ी हवा के बिना एक क्षण जी सकती है ? नहीं जी सकती। तो हवा भी आपकी चमड़ी के पार की एक पर्त है आपके शरीर की । उसके बिना आप नहीं जी सकते। हवा की पर्त अगर हटा ली जाए, तो आप जी नहीं सकते। जिसके बिना आप नहीं जी सकते, वह आपका शरीर है। जिसके बिना जीना मुश्किल हो जाएगा, वह आपका शरीर है। रोआं- रोआं श्वास ले रहा है। आप इस भ्रांति में मत रहना कि आपकी सिर्फ नाक ही श्वास ले रही है। अगर आपके पूरे शरीर को पेंट कर दिया जाए, और सब रोएं बंद कर दिए जाएं, और सिर्फ नाक खुली छोड़ दी जाए, तो आप पांच-सात मिनट में मर जाएंगे। कितना ही फिर आप जोर से श्वास लो, कुछ न होगा। क्योंकि रोआं-रोआं श्वास ले रहा है; पूरा शरीर श्वास ले रहा है। यह चारों तरफ हवा की जो पर्त है, वह भी आपकी चमड़ी है। उसके बिना आप नहीं जी सकते। दो सौ मील तक पृथ्वी के चारों तरफ हवा की पर्त है। लेकिन वह हवा की पर्त भी नहीं जी सकती, अगर उसके पास सूरज की किरणों का जाल न हो। वह हवा भी नहीं जी सकती। फिर दस करोड़ मील दूर तक सूरज की किरणों का जाल है; वह भी आपकी चमड़ी है। उसके बिना भी आप नहीं जी सकते। वहां सूरज ठंडा हो जाए, तो हम यहां अभी ठंडे हो जाएंगे। हमको पता भी नहीं चलेगा कि हम ठंडे हो गए, क्योंकि पता चलने के लिए भी हमारा बचना जरूरी है। इसलिए सूरज जब ठंडा होगा, तो हम लिखने के लिए बचेंगे नहीं; अखबार में खबर न निकाल | पाएंगे कि सूरज ठंडा हो गया। सूरज ठंडा हुआ कि हम ठंडे हुए। सूरज दस करोड़ मील दूर है, लेकिन सूरज की गर्मी हमारी पर्त है शरीर की। हम एंबाडीड हैं; सूरज की पर्त के भीतर हम हैं; एक बड़ा शरीर है। लेकिन सूरज भी न बचे, अगर महासूर्यों से उसे दिन-रात शक्ति न मिलती हो। हमारा सूरज बड़ा छोटा है। ऐसे बहुत बड़ा है; हमसे बहुत बड़ा लगता है। पृथ्वी से कोई साठ हजार गुना बड़ा है। लेकिन और सूर्यों के मुकाबले बहुत मीडियाकर है, बहुत छोटा सूरज है। | रात को जो तारे दिखाई पड़ते हैं, वे महासूर्य हैं। हमारा सूरज कोई तीन-चार अरब महासूर्यों की भीड़ में एक छोटा-सा सूरज है, बहुत | मीडियाकर, बहुत मध्यमवर्गीय कोई बहुत बड़ा सूर्य नहीं है। उससे करोड़ों बड़े सूर्य हैं। अगर उन सूर्यों से उसे दिन-रात ऊर्जा न मिलती हो, तो वह कभी का ठंडा हो जाए। वे भी हमारा शरीर हैं। हमारा शरीर समाप्त कहां होता है ? जहां ब्रह्मांड समाप्त होता हो, वहीं समाप्त होता है। उसके पहले समाप्त नहीं होता । एक छोटे-से फूल के खिलने में पूरा ब्रह्मांड सहयोगी है। एक | छोटा-सा फूल खिलता है घास का । इस घास के फूल के खिलने में अरबों-खरबों मील दूर बैठे हुए महासूर्यों का हाथ है; वे इसका शरीर हैं। उनके बिना यह न हो सके। 41 तो कृष्ण कहते हैं कि जो वीतराग हो जाता है, जो मेरे तेरे के भाव से उठ जाता है; जो आकर्षण - विकर्षण के पार हो जाता है, वह मेरे शरीर को उपलब्ध हो जाता है। मेरे शरीर का अर्थ है, समस्त ब्रह्मांड उसका शरीर बन जाता है। और जब ब्रह्मांड शरीर बनता है, तभी हमें ब्रह्म का पता चलता है कि हम कौन हैं ! मैं कौन हूं, हमें तब तक पता न चलेगा — निश्चित ही, जिन्हें अपने शरीर का भी पता नहीं, उन्हें अपनी आत्मा का क्या पता होगा ? जिन्हें शरीर का ही पता नहीं, उन्हें आत्मा का पता न हो सकेगा। जो अपने शरीर के संबंध में ही अज्ञानी हैं, वे अपनी आत्मा के संबंध में ज्ञानी कैसे हो सकेंगे ? इसलिए कृष्ण का कहना बहुत अर्थपूर्ण है कि वे मेरे शरीर को उपलब्ध हो जाते हैं। और अर्जुन से वे कहते हैं कि तुझसे जो मैं कह रहा हूं, उससे पहले भी जिन-जिन पुरुषों ने वीतरागता पाई, वे मेरे शरीर को उपलब्ध हो गए हैं, वे मेरे साथ एक हो गए हैं। दुई, दो का भाव भ्रम है, लेकिन बड़ा गहरा है। बड़ा गहरा है। लगता है कि हम अलग हैं। यह हमारा अलग होना बड़ी से बड़ी
SR No.002405
Book TitleGita Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages464
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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