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________________ जीवन एक लीला 0 जरूरत नहीं है। मांग ही फासला है। फल की जरूरत है! और । के ही पार हो जाता है। कर्ता के ही पार हो जाता है। इसलिए शुभ परमात्मा मिलता है उसको, जिसको फल की आकांक्षा नहीं है। आत्माएं जन्म लेने को आतुर हैं और शुभ करने को आतुर हैं। इसलिए कर्मों के फल की चाहना करने वाला मेरे निकट नहीं | | इसलिए जो लोग कर्मों के फल चाहते हैं, वे देवताओं को भजते हैं। आता, कृष्ण कहते हैं, मेरे निकट आएगा ही नहीं। क्योंकि मेरी शर्त | वे शुभ आत्माओं से सहायता मांगते हैं। इनसे सहायता मिल सकती ही पूरी नहीं करता। दि कंडीशन इज़ नाट फुलफिल्ड। शर्त ही यही है। इसमें कोई कठिनाई नहीं है। है कि बिना कुछ चाहे मेरे पास आओ, तो ही मेरे पास आ सकते हो। इसलिए कृष्ण कहते हैं कि मुक्ति के लिए तो तू मुझको भज। - अस्तित्व की भी शर्ते हैं। सौ डिग्री तक पानी गर्म हो जाए, तो शक्ति के लिए भजना हो, तो देवताओं को भज। मुक्ति के लिए भाप बन जाता है। निन्यानबे डिग्री तक गर्म हो, तो भी भाप नहीं भजना हो, तो तू मुझको भज। बनता; तो भी पानी ही रहता है। तो भाप कह सकती है कि सौ डिग्री लेकिन परमात्मा के निकट जाने की शर्त बड़ी कठिन है। सौ तक बनो तुम, तो आ जाओगे मेरे पास। आकाश कह सकता है कि डिग्री तक गर्म होना पड़े, भाप बनना पड़े, इवोपरेट होना पड़े। सौ डिग्री तक गर्म हो जाओ, तो बदलियां बन जाओगे, मुझमें तैर अहंकार जब तक भाप न हो जाए, हवा-हवा न हो जाए, तब तक सकोगे। लेकिन अगर सौ डिग्री तक गर्म नहीं होते, तो फिर पानी आकाश की तरफ उड़ान नहीं होती है। और अहंकार तब तक नहीं ही रहो और पृथ्वी पर ही चलो। फिर पानी ही रहो और नीचे की मिटता, जब तक फल-आकांक्षा शेष रहती है। तरफ बहो। इसलिए वे कहते हैं कि तू अगर मुक्त होना चाहे अर्जुन, अगर कभी खयाल किया है आपने? पानी नीचे की तरफ बहता है, | तू सब दुखों से, सब संतापों से, सब पीड़ाओं से, सब बंधनों से भाप ऊपर की तरफ उठती है! सिर्फ सौ डिग्री की शर्त पूरी हो जाने | मुक्त होना चाहे, तो तू मुझे भज। से ऐसा हो जाता है कि भाप आकाश की तरफ उठने लगती है। लेकिन मुझे भजने का मतलब क्या? मुझे भजने का मतलब यह समुद्र आकाश की तरफ दौड़ने लगता है। और पानी हिमालय पर, है कि जैसे मैं कर्म की स्पृहा से, फल की स्पृहा से, भविष्य की गौरीशंकर पर भी हो, तो भी गड्डों की तरफ दौड़ता चला जाता है; आकांक्षा से, फलाकांक्षा से मुक्त हूं, ऐसा ही तू भी फलाकांक्षा से नीचे उतरता चला जाता है। मुक्त हो जा। मेरे भांति बर्त। कर्म कर, कर्ता न रह जा। चल, चलने कर्मफलों की आकांक्षा परमात्मा के बीच व्यवधान है। वाला न रह जा। उठ-बैठ, उठने-बैठने वाला न रह जा। कर, लेकिन इसलिए कृष्ण कहते हैं, जो कर्मों के फल के लिए भजता है, वह | | भीतर से कर्ता को विदा कर दे। होने दे, जो होता है। परम शक्ति के मुझे नहीं भज सकता। वह मेरी जगह सिर्फ देवताओं को भजता है। हाथों में साधन मात्र हो जा-समर्पित, निमज्जित। अपने को छोड़। देवताओं का मैंने रात आपको अर्थ किया, वे आत्माएं जो शरीर | तो तू समस्त दुखों से, समस्त बंधनों से मुक्त हो सकता है। नहीं ले पातीं, लेकिन अत्यंत शुभ हैं। लेकिन शरीर लेने को आतुर और दूसरी बात पूछी है, धर्म-संस्थापना के लिए, इसका क्या हैं अभी; अभी मुक्त नहीं हो गई हैं। अर्थ है? ध्यान रहे, मुक्त वही होता है, जो न शुभ रह जाता, न अशुभ; धर्म नष्ट कभी नहीं होता। कुछ भी नष्ट नहीं होता, तो धर्म तो न गुड, न बैड। शुभ आत्मा भी मुक्त नहीं होती; अशुभ आत्मा भी नष्ट होगा ही नहीं! धर्म कभी नष्ट नहीं होता, लेकिन लुप्त होता मुक्त नहीं होती। अशुभ आत्मा भी बंधी रहती है अपने अशुभ कर्मों है। लुप्त होने के अर्थों में नष्ट होता है। उसकी पुनर्संस्थापना की से, लोहे की जंजीरों से। शुभ आत्मा बंधी रहती है अपने शुभ कर्मों निरंतर जरूरत पड़ जाती है। उसकी पुनर्प्रतिष्ठा की निरंतर जरूरत से, सोने की जंजीरों से। जंजीरों में फर्क है। बुरी आत्मा के पास पड़ जाती है। लोहे की जंजीरें हैं, कुरूप, जंग खाई हुई। शुभ आत्मा के पास अधर्म कभी अस्तित्ववान नहीं होता। जैसे धर्म कभी चमकदार, पालिश्ड, सुसंस्कृत, सोने की जंजीरें हैं, हीरे-जवाहरातों अस्तित्वहीन नहीं होता, अधर्म कभी अस्तित्ववान नहीं होता। से जड़ी। बाकी बंधन दोनों के हैं। लेकिन बार-बार, फिर भी उस अस्तित्वहीन अधर्म को हटाने की शुभ आत्माएं भी मुक्त नहीं होती हैं। मुक्त तो वही होता है, जो जरूरत पड़ जाती है। शुभ-अशुभ के पार हो जाता है। बंधन के ही पार हो जाता है। कर्म इसे थोड़ा समझें। क्योंकि यह बड़ी उलटी बात मालूम पड़ेगी! 75
SR No.002405
Book TitleGita Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages464
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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