SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 366
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Sam गीता दर्शन भाग-1 - यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽनर्जुन । | तो हम प्रतीत होता है कि इंद्रियों के वश में हैं। इस बात को ठीक कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते ।।७।। | से समझ लेना जरूरी है। और हे अर्जुन, जो पुरुष मन से इंद्रियों को वश में करके ___ साधारणतः तो ऐसा प्रतीत होता है कि हम इंद्रियों के गुलाम हैं। अनासक्त हुआ कर्मेंद्रियों से कर्मयोग का आचरण करता है, | साधारणतः तो जिंदगी ऐसी ही है, जहां इंद्रियां आगे चलती मालूम वह श्रेष्ठ है। | पड़ती हैं और हम पीछे चलते मालम पड़ते हैं। जब मैं कह रहा है, इंद्रियां आगे चलती मालूम पड़ती हैं, तो उसका मतलब है कि वासनाएं आगे चलती मालूम पड़ती हैं। वासनाएं हमें दिखाई नहीं 17 नुष्य के मन में वासना है, कामना है। उस कामना का पड़ती हैं, जब तक कि वे इंद्रियों में प्रविष्ट न हो जाएं। वासनाएं तब 1 परिणाम सिवाय दुख के और कुछ भी नहीं है। उस | तक अदृश्य होती हैं, जब तक इंद्रियों पर हावी न हो जाएं। इसलिए वासना से सिवाय विषाद के, फ्रस्ट्रेशन के और कभी | हमें तो इंद्रियां ही दिखाई पड़ती हैं। वासनाओं का जो सूक्ष्मतम रूप कुछ मिलता नहीं है। लगता है, मिलेगा सुख, मिलता है सदा दुख। है, अतींद्रिय, वह हमें दिखाई नहीं पड़ता है। लगता है, मिलेगी शांति, मिलती है सदा अशांति। लगता है, __ आपके मन में कोई भी वासना उठे, तो वासना दिखाई नहीं उपलब्ध होगी स्वतंत्रता, लेकिन आदमी और भी गहरे बंधन में | | पड़ती, जब तक उस वासना से संबंधित इंद्रिय आविष्ट न हो जाए। बंधता चला जाता है। कामना मनुष्य का दुख है, तृष्णा मनुष्य की | | अगर आपके मन में किसी को छूने की वासना उठी है, तो तब तक पीड़ा है। उसका स्पष्ट बोध नहीं होता, जब तक छूने के लिए शरीर आतुर न निश्चित ही, वासना से उठे बिना, वासना के पार हुए बिना, कोई | | हो जाए। जब तक वासना शरीर नहीं लेती, आकार नहीं लेती, जब व्यक्ति कभी आनंद को उपलब्ध नहीं हुआ है। पर इस वासना से | | तक वासना इंद्रियों में गति नहीं बन जाती, तब तक हमें पता नहीं ऊपर उठने के लिए दो काम किए जा सकते हैं; क्योंकि इस वासना | चलता। इसलिए बहुत बार ऐसा होता है कि क्रोध का हमें तभी पता के दो हिस्से हैं। एक तो वासना से भरा हआ चित्त है, मन है; और चलता है, जब हम कर चुके होते हैं। काम का हमें तभी पता होता एक वासना के उपयोग में आने वाली इंद्रियां हैं। जो आदमी ऊपर है, जब वासना हम पर आविष्ट हो गई होती है। हम पजेस्ड हो गए से पकड़ेगा; उसे इंद्रियां पकड़ में आती हैं और वह इंद्रियों की शत्रुता | | होते हैं, तभी पता चलता है। और शायद तब तक लौटना मुश्किल में पड़ जाता है। हो गया होता है, तब तक शायद वापसी असंभव हो गई होती है। कृष्ण ने कहा, वैसा आदमी नासमझ है, अज्ञानी है, मूढ़ है। ना हमारे आगे चलती है और हम छाया की तरह पीछे चलते दूसरी बात अब वे कह रहे हैं। वे कह रहे हैं, लेकिन वह मनुष्य | | हैं। मनुष्य की गुलामी यही है। और जो मनुष्य ऐसी गुलामी में है, श्रेष्ठ है, जो मन को ही रूपांतरित करके इंद्रियों को वश में कर लेता। | उसे कृष्ण कहेंगे, वह निकृष्ट है, उसे अभी मनुष्य कहे जाने का है। इंद्रियों का वश में होना, इंद्रियों का मर जाना नहीं है। इंद्रियों का | हक नहीं है। मनुष्य का हक तो उसे है, जिसकी वासनाएं उसके वश में होना, इंद्रियों का निर्वीर्य हो जाना नहीं है। इंद्रियों का वश में | पीछे चलती हैं। लेकिन इधर फ्रायड के बाद सारी दुनिया को यह होना, इंद्रियों का अशक्त हो जाना नहीं है। क्योंकि अशक्त को वश समझाया गया है कि वासनाएं कभी पीछे चल ही नहीं सकतीं; में भी किया, तो क्या वश किया? निर्बल को जीत भी लिया, तो वासनाएं आगे ही चलेंगी। और यह भी समझाया गया है कि क्या जीता? वासनाओं को वश में किया ही नहीं जा सकता। आदमी को ही कृष्ण कहते हैं, श्रेष्ठ है वह पुरुष, जो इंद्रियों से लड़ता ही नहीं, वासना के वश में रहना होगा। और यह भी समझाया गया है कि बल्कि मन को ही रूपांतरित करता है और इंद्रियों को वश में कर | | विल पावर या संकल्प की शक्ति की जितनी बातें हैं, वे सब झूठी लेता है। मारता नहीं, लड़ता नहीं, वश में कर लेता है। हैं। आदमी के पास कोई संकल्प नहीं हैं। निश्चित ही, लड़ने की कला बिलकुल ही नासमझी से भरी है। | इसके परिणाम हुए हैं। इसके परिणाम ये हुए हैं कि आदमी ने कहना चाहिए, कला नहीं है, कला का धोखा है। वश में करने की | इंद्रियों की गुलामी को परिपूर्ण रूप से स्वीकार कर लिया है। आदमी कला बहुत ही भिन्न है। इंद्रियां किसके वश में होती हैं? साधारणतः | | राजी हो गया है कि हम तो वासनाओं के गलाम रहेंगे ही। और जब |336|
SR No.002404
Book TitleGita Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages512
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy