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________________ निर्वाण उपनिषद एक तो शराब पीकर आदमी इतना बेहोश हो जाता है कि उसे अपने होने का पता नहीं रहता। उमर खय्याम कहता है कि उस परमात्मा की शराब भी ऐसी है कि जो पी लेता है, उसे अपने होने का कोई पता नहीं रहता। वह कर्ता, वह मैं, वह खो जाता है। शायद शराब का जो इतना आकर्षण है सारी जमीन पर, वह इसीलिए है कि हम इतने कर्ता से भरे हुए हैं कि थोड़ी देर के लिए भुलाने के लिए सिवाय शराब के हमारे पास और कोई उपाय नहीं है। इसलिए सच में ही इस शराब से वे ही लोग बच सकते हैं, जो परमात्मा की शराब पी लें, क्योंकि फिर कर्ता ही उनके पास नहीं बचता, जिसे भुलाने की जरूरत हो।। निर्मूल करना हो, जड़ से ही काट डालना हो, तो कर्ता को काटना पड़ता है, कर्मों को नहीं। कर्म तो पत्ते हैं, मूल नहीं हैं। और उस मूल अहंकार को कि मैं करने वाला हूं, कैसे काटेंगे? कौन सी तलवार काम पड़ेगी वहां? कौन सी कुदाली वहां खोदेगी? कौन सी कुल्हाड़ी वहां काटेगी? __जहां-जहां कर्ता का भाव हो, वहां-वहां साक्षी का भाव स्थापित कर लें। जहां-जहां लगे कि मैं कर रहा हूं, वहीं-वहीं जानें कि मैं कर नहीं रहा हूं, केवल ऐसा हो रहा है, इसे देख रहा हूं। किसी के प्रेम में आप पड़ गए हैं। आप कहते हैं, मैं बहुत प्रेम करता हूं। लेकिन अब तक कोई प्रेमी सच नहीं बोला। सच इसलिए नहीं बोला कि प्रेम कभी किसी ने किया है? हो जाता है! नहीं तो करके दिखाएं। बता दें आपको कि यह रहा, इस आदमी को प्रेम करके बताओ। हां, फिल्म की स्टेज पर बात और है, बताया जा सकता है। लेकिन आप प्रेम करके बता नहीं सकते। इसके लिए आर्डर नहीं किया जा सकता कि चलो, करो प्रेम। अगर हो भी थोड़ा-बहुत, तो तिरोहित हो जाएगा एकदम, आर्डर सुनते ही। इसलिए तो बच्चों का प्रेम नष्ट हो जाता है, क्योंकि बच्चों को हम आर्डर कर रहे हैं। कह रहे हैं, यह तुम्हारी मां है, करो प्रेम। यह पागलपन की बात है। अगर मां है तो प्रेम पैदा अब तक हो जाना चाहिए था। अगर मां है और अब तक प्रेम पैदा नहीं हुआ, तो क्या कहने से अब हो सकेगा? मां के होने से नहीं हुआ साथ रहकर, तो अब कहने से क्या होगा? लेकिन मां ही कह रही है कि चलो, करो प्रेम। चलो, यह तुम्हारी चाची है, इसके गले लगो। यह तुम्हारे पिताजी हैं, इनके पैर छुओ। बच्चे बेचारे जबर्दस्ती कर-करके उस हालत में पहुंच जाते हैं कि फिर उनसे कभी बिना जबर्दस्ती के होता ही नहीं। कंडीशनिंग हो जाती है। यह पत्नी है, करो प्रेम; यह पति हैं, करो प्रेम। फिर पूरी जिंदगी करो। लेकिन प्रेम तो एक घटना है, हैपनिंग है। किया नहीं जाता, हो जाता है। अगर जब आपको प्रेम हो, तब आप यह समझ पाएं कि यह हो रहा है, मैं कर नहीं रहा हूं, तो आपको प्रेम का कर्म बांधेगा नहीं। आप कहेंगे, अवश हं, विवश है, मेरे हाथ के बाहर है, कुछ हो रहा है। तब आप साक्षी बन सकते हैं. द्रष्टा बन सकते हैं। और जो व्यक्ति प्रेम का द्रष्टा बन जाए, वह और सब चीजों का द्रष्टा बन सकता है, क्योंकि प्रेम बहुत गहरा अनुभव है। और सब चीजें तो ऊपर-ऊपर हैं, बहुत ऊपर-ऊपर हैं। द्रष्टा बनें। जहां-जहां कर्ता का भाव सघन होता हो, वहां-वहां द्रष्टा को लाएं। धीरे-धीरे जड़ कट जाएगी कर्म की और आप अचानक पाएंगे कि कर्मों का सारा जाल आपसे दूर होकर गिर पड़ा, जैसे आपके वस्त्र गिर गए हों और आप नग्न खड़े हैं। और जिस दिन कर्मों से नग्न होकर कोई खड़ा हो जाता है, उस दिन परमात्मा के लिए द्वार सीधा खुल जाता है। हमारे और उसके बीच कर्मों की श्रृंखला की 7254
SR No.002398
Book TitleNirvan Upnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1992
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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