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________________ निर्वाण उपनिषद नहीं होता। बीज में तो सिर्फ नक्शा होता है कि वृक्ष कैसा होगा। जस्ट ए ब्लू-प्रिंट, ए बिल्ट-इन प्रोग्रैम। जैसे कि कोई आर्किटेक्ट एक मकान बनाता है और अपनी फाइल में एक नक्शा दबाकर चलता है। आप उसके नक्शे में रहने की कोशिश मत करना। वह नक्शा सिर्फ ब्लू प्रिंट है। वह सिर्फ रूपरेखा है; जैसा कि मकान बन सकेगा, उसकी सिर्फ रूपरेखा है। बीज में वृक्ष नहीं होता, बीज में सिर्फ रूपरेखा होती है। वृक्ष तो शून्य से आता है, बीज रूपरेखा देता है और वृक्ष निर्मित होता है। आप जब पैदा होते हैं, तो आपके पिता और मां से आप पैदा नहीं होते, जस्ट ए ब्लू प्रिंट इज़ गिवेन। मां और बाप सिर्फ ब्लू प्रिंट देते हैं, रूपरेखा देते हैं कि नाक कैसी होगी, आंख कैसी होगी, बाल का रंग कैसा होगा, उम्र कितनी होगी, सब रूपरेखा दे देते हैं, लेकिन जो जीवन आता है, वह शून्य से आता है। सारा अस्तित्व शून्य से निकलता है और सारा अस्तित्व शून्य में लौट जाता है। जब एक वक्ष गिरता है और नष्ट होता है, तो पत्ते जमीन में मिलकर फिर मिट्टी हो जाते हैं। वे मिट्टी से आए थे। रूपरेखा खो गई, बिल्ट-इन प्रोग्रॅम था, वह समाप्त हो गया। सत्तर साल वृक्ष को रहना था, वह बात समाप्त हो गई। मिट्टी अपनी मिट्टी खींच लेती है, पानी अपना पानी वापस ले लेता है, आकाश अपना आकाश मांग लेता है, सूर्य अपनी किरणों को वापस उठा लेता है, हवाएं अपनी हवाओं को खींच लेती हैं। लेकिन वृक्ष कहां गया? वह जो जीवन था, जिसने इस मिट्टी को इकट्ठा किया था और हवा को बांधा था और जिसने पानी खींचा था आकाश से और सूरज से किरणें ली थीं, वह जो जीवन था, जिसने यह सब संघट किया था, यह सारा आर्गनाइजेशन किया था, वह जीवन कहां है? वह शून्य से आया था और शून्य में वापस लौट गया। परमात्मा को शून्य कहने का कारण है। जो भी दिखाई पड़ता है, वह तो पदार्थ है। जो भी पकड़ में आता है, वह पदार्थ है। इस सब दिखाई पड़ने वाले और पकड़ में आने वाले के अतिरिक्त कहीं कोई । मूल स्रोत जीवन का चाहिए। उसे हम क्या कहें? उसे हम कोई भी नाम देंगे, तो वह पदार्थ जैसा मालूम पड़ेगा। शून्य भर एक शब्द है हमारे पास, जो पदार्थ जैसा मालूम नहीं पड़ता। ___इसलिए परमात्मा को शून्य कहा है। इसीलिए उसे निराकार कहा है, सिर्फ शून्य ही निराकार हो सकता है। सिर्फ शून्य ही निराकार हो सकता है। इसीलिए उसे निर्गुण कहा है, सिर्फ शून्य ही निर्गुण हो सकता है। इसीलिए उसे सनातन कहा है-सदा एक जैसा रहने वाला-सिर्फ शून्य ही सदा एक जैसा हो सकता है। जैसे ही आकृति आती है, बदलाहट आ जाती है। जैसे ही गुण आते हैं, परिवर्तन आ जाता है। जैसे ही रूप आता है, जन्म और मृत्यु आ जाती है। सिर्फ शून्य ही अजन्मा, अमृत हो सकता है। __इसलिए ऋषि कहता है, शून्य संकेत नहीं है हमारा, शून्य उसकी सत्ता है। विराट जगत उसी से पैदा होता है और उसी में लीन हो जाता है। शून्य परमात्मा की सत्ता, उसका अस्तित्व, उसके होने का ढंग है। इसीलिए वह दिखाई नहीं पड़ता। इसीलिए परमात्मा का दर्शन, ठीक शब्द नहीं है कहना। आंख से तो वह दिखाई नहीं पड़ेगा। कहना पड़ता है, क्योंकि मजबूरी है। कोई भी शब्द उपयोग करेंगे, तो इंद्रियों का होगा। परमात्मा की होती है प्रतीति, होती है अनुभूति, होती है एक्सपीरिएंसिंग, दर्शन नहीं। कहते हैं, शब्द के लिए उपाय नहीं कोई। परमात्मा शून्य है, इसीलिए तो मौजूद होकर भी मौजूद नहीं मालूम पड़ता। सब तरफ होकर भी अनुपस्थित है। जगह-जगह होकर भी कहीं भी नहीं मालम पड़ता। स्वामी राम निरंतर एक बात कहा करते थे। वे कहते थे, एक परम नास्तिक था। और उसने कहीं V 162
SR No.002398
Book TitleNirvan Upnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1992
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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