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________________ (१५) वर्ष सर्वदा और सर्वथा शिल्पकला, धर्मकला आदि में प्रवीण होने से असभ्य नहीं माना जाता। अब रही बात यह कि-जो उसके कितनेही भागों में और कितनीही जातियों तथा धर्मों में मांसाहार प्रवेश करगया है उसका कारण यह है कि-श्रीमहावीरस्वामी के बाद बारह वर्ष का दुष्काल तीन वार पड़ गया, उस समय अन्न का अभाव होने से बहुत मनुष्य अपने२ प्राण की रक्षा के लिए मांसाहारी बनगए, किन्तु धीरे २. अकाल की निवृत्ति होने परभी मांसाहारका अभ्यास दूर न हुआ। अतएव जैन साधुओं का विहार सर्वथा पूर्व देशादि में शुद्धोहार के न मिलने से तथा मुसलमानों के उपद्रव होने से बन्द होगया था, इसलिए लोगों को अहिंसाधर्म का उपदेश नहीं मिला। कितने ही कल्याणाभिलाषी भव्यजीवों ने मांसाहारी ब्राह्मणों से यह प्रश्न किया कि महाराज ! मांसाहार करनेवाले को शास्त्रों में भारी दण्ड लिखा है अर्थात् पशु की देह पर जितने रोम होते हैं उतने हजार वर्ष मारनेवाला नरक के दुःख का अनुभव करता है तो अपने लोगों की मांसखाने से क्या गति होगी ? इसके उत्तर में ब्राह्मणों ने कहा कि अविधिपूर्वक मांस खाने से ही नरक होता है, किन्तु विधिपूर्वक मांस खाने से धर्म ही होता है । अतएव तुम लोग भी यदि देवपूजा, या श्राद्धादि में मांस खाओगे तो हानि नहीं होगी। इसी तरह साथही साथ पूर्वोक्त बात का उपदेश भी करना प्रारम्भ कर दिया और जैसा मन में आया वैसे श्लोक भी बना दिये।
SR No.002390
Book TitleAhimsa Digdarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaydharmsuri
PublisherYashovijay Jain Granthmala
Publication Year1923
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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