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________________ (११३ ) प्राप्त करता है इसलिये परलोक भी सिद्ध होता है। हिंसा का स्वरूप इस प्रकार तत्त्ववेत्ताओं ने दिखलाया है । यथा "दुःखोत्पत्तिर्मनक्लेशस्तत्पर्यायस्य च क्षयः । यस्यां स्यात् सा प्रयत्नेन हिंसा हेया विपश्चिता॥१॥ भावार्थ-जिसमें दुःख की उत्पत्ति, मन को क्लेश, और शरीर के पर्यायों का क्षय होता हो, उस हिसा का यत्नपूर्वक बुद्धिमान पुरुषों को त्याग करना चाहिये । विषय, कषाय, निद्रा, मादक वस्तुओं का पान करना, विकथादिरूप प्रमाद से दुःखोत्पत्ति, मनःक्लेश, और जीव ने धारण किये हुए शरीर का नाशकरना ही हिंसा मानी जाती है । वह हिंसा संसाररूप वृक्ष के बढ़ाने के लिये अमोघ बीज है । यहां यह शङ्का उत्पन्न होती है कि योगी भोगी दोनों को चलने फिरने से हिंसा लगती है किस प्रकार संसाररू वृक्ष का नाश हो सकता है ? इसका उत्तर यह है कि प्रमादी ( अज्ञानी पुरुष विना उपयोग भी क्रिया किया करता है, उससे जीव चाहे मरे,. या न मरे यह दूसरी बात है, किन्तु हिंसा का पाप तो उस प्रमादी के शिरपर चढ़ता ही है, परन्तु अप्रमादी पुरुष उपयोगपूर्वक गमनागमन क्रिया करता है, यदि कदाचित् उसमें जीव मर भी जाय तो हिंसा. जन्य दोष उसके शिरपर शास्त्रकारों ने नहीं माना हैं; क्योंकि परिणाम से ही बन्ध होता है, अतएव राजकीय न्याय भी इसी के अनुसार होता है, अर्थात् मारने के इरादे से ही मारनेवाले को फाँसी होती है, और मारने
SR No.002390
Book TitleAhimsa Digdarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaydharmsuri
PublisherYashovijay Jain Granthmala
Publication Year1923
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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