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________________ एस धम्मो सनंतनो वक्कलि स्थविर श्रावस्ती में ब्राह्मण-कुल में उत्पन्न हुए थे। वे तरुणाई के समय भिक्षाटन करते हुए तथागत के सुंदर रूप को देखकर अति मोहित हो गए। फिर ऐसा सोचकर कि यदि मैं इनके पास भिक्षु हो जाऊंगा, तो सदा इन्हें देख पाऊंगा, प्रव्रजित हो गए। वे प्रव्रज्या के दिन से ही ध्यान-भावना आदि न कर केवल तथागत के रूप-सौंदर्य को ही देखा करते थे। भगवान भी उनके ज्ञान की अपरिपक्वता को देखकर कुछ नहीं कहते थे। फिर एक दिन ठीक घड़ी जान-वक्कलि के ज्ञान में थोड़ी प्रौढ़ता देखकर-भगवान ने कहा ः वक्कलि! इस अपवित्र शरीर को देखने से क्या लाभ? वक्कलि, जो धर्म को देखता है, वह मुझे देखता है। फिर भी वक्कलि को सुध न आयी। वे शास्ता का साथ छोड़कर कहीं भी न जाते थे। शास्ता के कहने पर भी नहीं। उनका मोह छूटता ही नहीं था। तब शास्ता ने सोचाः यह भिक्षु चोट खाए बिना नहीं सम्हलेगा। यह संवेग को प्राप्त हो, तो ही शायद समझे। सो एक दिन किसी महोत्सव के समय, हजारों भिक्षुओं के समक्ष, उन्होंने बड़ी कठोर चोट की। कहाः हट जा वक्कलि! हट जा वक्कलि! मेरे सामने से हट जा! और ऐसा कहकर वक्कलि को सामने से हटा दिया। स्वभावतः वक्कलि बहुत क्षुब्ध हुआ; गहरी चोट खाया। पर वक्कलि ने जो व्याख्या की वह पुनः भ्रांत थी। सोचा : भगवान मुझ से क्रुद्ध हैं। अब मेरे जीने से क्या लाभ? और जब मैं सामने बैठकर उनका रूप ही न देख सकूँगा, तो अब मर जाना ही उचित है। ऐसा सोचकर वह गृद्धकूट पर्वत पर चढ़ाः पर्वत से कूदकर आत्मघात के लिए। अंतिम क्षण में बस, जब कि वह कूदने को ही था-अंधेरी रात में कोई हाथ पीछे से उसके कंधे पर आया। उसने लौटकर देखा। भगवान सामने खड़े थे। अंधेरी रात्रि में उनकी प्रभा अपूर्व थी। आज उसने शास्ता की देह ही नहीं, शास्ता को देखा। आज उसने धर्म को जीवंत सामने खड़े देखा। एक नयी प्रीति उसमें उमड़ी-ऐसी प्रीति जो कि बांधती नहीं, मुक्त करती है। तभी भगवान ने इस अपूर्व अनुभूति के क्षण में वक्कलि को ये गाथाएं कही थीं: छिंद सोतं परक्कम्म कामे पनुद ब्राह्मण। संखारानं खयं अत्वा अकतसि ब्राह्मण।। 'हे ब्राह्मण, पराक्रम से तृष्णा के स्रोत को काट दे और कामनाओं को दूर कर दे। हे ब्राह्मण, संस्कारों के क्षय को जानकर तुम अकृत-निर्वाण-का साक्षात्कार कर लोगे।' 142
SR No.002389
Book TitleDhammapada 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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