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________________ एस धम्मो सनंतनो तीसरा प्रश्नः बुद्ध के पास पश्चात्ताप के तीव्र क्षणों में स्वर्ण मछली को अपने पूर्व-जन्मों का स्मरण हुआ। क्या बुद्ध के पास प्रसाद के क्षणों में भी पूर्व-जन्मों का स्मरण होता है-कृपा कर कहिए। नहीं –प्रसाद के क्षणों में तो समय मिट जाता है। आनंद के क्षणों में तो समय -तिरोहित हो जाता है, समय बचता ही नहीं। कैसा अतीत? कैसा भविष्य? वर्तमान भी नहीं बचता आनंद के क्षणों में। आनंद के क्षण में समय होता ही नहीं; शाश्वतता होती है। इसको खयाल में लो। दुख के क्षण में समय होता है। जितना दुख होता है, उतना ज्यादा समय होता है। तुमने कभी अवलोकन किया ः तुम बैठे हो किसी प्रियजन की खाट के पास और प्रियजन मर रहा है, तो रात बड़ी लंबी हो जाती है-बड़ी लंबी हो जाती है! समय खूब बड़ा हो जाता है। काटे नहीं कटती रात! बार-बार घड़ी देखते हो। सोचते होः घड़ी बंद तो नहीं हो गयी! कांटा आज धीमे-धीमे क्यों घूम रहा है? दुख जितना सघन है, उतना ही सघन समय हो जाता है। रात लंबाने लगती है। सुबह आती नहीं मालूम होती है। और तुम्हारा प्रियजन मिलने आया है; तुम्हारी प्रेयसी तुम्हें मिल गयी, और तुम आनंद-उल्लास से भरे हो। समय सिकड़कर छोटा हो जाता है। रात ऐसे बीत जाती है-अभी आयी, अभी गयी! पल में बीत गयी! घड़ी-ऐसा लगता है-भाग रही है आज। समय इतनी तेजी से जाता है कि पता नहीं चलता, कब चला गया। ऐसा तुमने निरीक्षण किया होगा। जब तुम सुख में होते हो, तो समय तेजी से भागता लगता है। और जब तुम दुख में होते हो, तब समय की चाल धीमी हो जाती है; मंथर हो जाती है गति। इस मनोवैज्ञानिक सत्य को खूब स्मरण रखो। यह तो साधारण सुख-दुख की बात है। जिसको जन्मों-जन्मों के दुख की पीड़ा का खयाल हो जाए, उसकी समय की अवधारणा बड़ी प्रगट हो जाती है, बड़ी प्रगाढ़ हो जाती है। और जिसे अंतरतम के शाश्वत आनंद का बोध हो जाए, उसका समय विलीन हो जाता है, बिलकुल शून्य हो जाता है। ऐसा समझोः दुख में समय लंबा मालूम होता है। महादुख में बहुत लंबा हो जाता है, अंतहीन हो जाता है, अनंत हो जाता है। सुख में छोटा हो जाता है। महासुख में बहुत अल्प हो जाता है। आनंद में बिलकुल शून्य हो जाता है। जीसस का एक वचन है। इस सदी के बड़े विचारक बट्रेंड रसल ने उसकी बड़ी निंदा की है। और कोई भी ऊपर से देखेगा, तो निंदा करेगा। जीसस ने कहा है जो 44
SR No.002388
Book TitleDhammapada 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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